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आखिर हमें क्यों चाहिए 'एक देश, एक चुनाव', जानें सभी पहलू

इस बजट सत्र के पहले दिन राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने अपने भाषण में एक साथ चुनाव का जिक्र किया।

Updated on: 06 Feb 2018, 12:10 PM

नई दिल्ली:

इस बजट सत्र के पहले दिन राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने अपने भाषण में एक साथ चुनाव का जिक्र किया। इसी के साथ ये सवाल एक बार फिर सामने आया कि क्या हमारे मुल्क में लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ हो सकते हैं?

इससे पहले पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी इसे लेकर सुझाव दे चुके हैं। सालों पहले लालकृष्ण आडवाणी भी इसकी वकालत कर चुके हैं। कुछ समय पहले खबर आई थी कि गृहमंत्री राजनाथ सिंह की अध्यक्षता वाले एक मंत्रिसमूह को इसकी व्यावहारिकता समझने की जिम्मेदारी सौंपी गई थी।

इस जीओएम को नई ईवीएम खरीदने के प्रस्ताव पर भी विचार करना था। सितंबर 2018 तक चुनाव आयोग को 40 लाख नई वीवीपैट मिल जाने की भी खबर थी।

पहली बार नहीं होंगे एक साथ चुनाव

ऐसा नहीं कि हमारे मुल्क में ऐसा पहली बार होगा। 1952 से लेकर 1967 तक देश में लोकसभा और विधानसभा चुनाव साथ-साथ ही होते थे। उसके बाद विधानसभाओं के स्तर पर दिक्कतें हुईं और फिर 1970 में लोकसभा भी समय से पहल भंग हुई तो साथ-साथ चुनाव का फार्मूला पटरी से उतर गया।

इसके चलते बीते करीब 50 साल से देश में चुनाव एक साथ नहीं हो पाए। इसी का नतीजा है कि हमारे यहां चुनाव लोकतंत्र का ऐसा पर्व है तो हर दूसरे महीने मनाया जाता है। कभी किसी राज्य में तो कभी किसी राज्य में।

समितियों ने लगाई मुहर

1999 में वाजपेयी सरकार में चुनाव सुधार से जुड़ी एक रिपोर्ट में विधिक आयोग ने भी एक साथ चुनाव की सिफारिश की थी। 2015 में एक संसदीय स्थायी समिति ने इसकी व्यावहारिकता पर विचार किया और तमाम चुनौतियों के बीच देर से ही सही इस दिशा में आगे बढ़ने की उम्मीद जताई। चुनाव आयोग और नीति आयोग भी इसे लेकर अपनी सहमति जता चुका है।

एक साथ चुनाव के कई फायदे

देश की 4120 विधानसभा और 545 लोक सभा यानि 4665 सीटों पर चुनाव अगर एक साथ हों तो इसके कई फायदे हैं। बार-बार होने वाले चुनावों में खर्च होनी वाली रकम घटेगी, जो आम आदमी का ही पैसा है। नीति आयोग की ओर से जारी एक रिपोर्ट में चुनाव आयोग को बताया गया कि एक साथ चुनाव का खर्चा करीब 4500 करोड़ रूपए होगा, जबकि अकेले 2014 के लोक सभा चुनाव का खर्च करीब 3870 करोड़ रूपए था।

चुनावों के दौरान लगने वाली आदर्श आचार संहिता की अवधि घटेगी, आचार संहिता की ये आदर्श स्थिति दरअसल में विकास से जुड़े काम रोक देती है। एक साथ चुनाव होने पर सरकारी कर्मचारियों को भी अपने बुनियादी काम करने का समय मिल सकेगा। ऐसा होने पर आम आदमी को भी रोज रोज की रैलियों, हिंसा और हंगामे से राहत मिलेगी। पैसे के इस्तेमाल पर रोक के साथ—साथ भ्रष्टाचार, जातिवाद और सांप्रदायिकता पर भी कुछ काबू पाया जा सकेगा।

चुनौतियां अपार

वैसे इसके सामने कई चुनौतियां हैं। मसलन, एक साथ चुनाव कराने का फैसला कब लिया जाए? एक साथ चुनाव जब भी होगा तब किसी राज्य में सरकार के कार्यकाल को बढ़ाना होगा और किसी में घटाना होगा। बढ़ाने को शायद हर मुख्यमंत्री तैयार हो, लेकिन घटाने को शायद कोई नहीं? तब जबकि चुनाव जीतना कोई सस्ता खेल नहीं है। सवाल ये भी कि राजनीतिक दलों में सहमति बन सकेगी! खासकर तब जबकि देश में करीब 1600 राजनीतिक दल मौजूद हैं।

464 दल तो बीते लोक सभा चुनाव में भी शिरकत कर चुके हैं। सवाल राजनीतिक अस्थिरता झेलते रहे उत्तराखंड, गोवा और झारखंड जैसे छोटे राज्यों के भविष्य को लेकर भी है। बड़ी संख्या में कार्यकर्ता रखने वाली भाजपा और कांग्रेस के लिए तो देशभर में एक साथ चुनाव को मैनेज करना ज्यादा मुश्किल भरा नहीं होगा लेकिन सवाल बाकी छोटे—बड़े दलों का है। बात संविधानिक संशोधन से भी जुड़ी है।

ढेरों सवाल भी

आरोप है कि एक साथ चुनाव का विरोध कर रही कांग्रेस को डर है कि वह नरेन्द्र मोदी जैसे बड़े चेहरे का मुकाबला नहीं कर सकेगी। सवाल है कि क्या एक साथ चुनाव करवाकर छोटे दलों की आवाज को दबाने की साजिश है।

सवाल ये भी कि क्या इस बहाने देश में कुकुरमुत्ते की तरह उभर रहे गैर जरूरी दलों से राहत मिल सकेगी? क्या एक साथ चुनाव से केन्द्र और राज्यों की सत्ता पर काबिज होने वाले दल के तानाशाही रवैये का खतरा पैदा होता है?

क्या जनता को अपनी वोट की ताकत को दिखाने के लिए पांच साल तक इंतजार करना पड़ेगा जो अभी अलग—अलग वक्त पर अलग—अलग चुनावों में दिखता है। बेशक एक साथ चुनाव के कई फायदे हैं, लेकिन कई सवाल भी हैं। जिनके जबाव ​राजनीतिक वर्ग और समाज को खोजने होंगे।