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साहित्य के कैनवास पर भूख से विवश होरी और बुज़ुर्गों के लिए फ़िक्रमंद हामिद की तस्वीर बनाते प्रेमचंद

प्रेमचंद एक ऐसे लेखक थे जिन्होंने कभी कल्पना और फंतासियों पर कलम नहीं चलाया। उनकी कल्पनाओं में चांद या मौसम नहीं रहा।

Updated on: 31 Jul 2018, 04:59 PM

नई दिल्ली:

प्रेमचंद एक ऐसे लेखक थे जिन्होंने कभी कल्पना और फंतासियों पर कलम नहीं चलाया। उनकी कल्पनाओं में चांद या मौसम नहीं रहा। प्रेमचंद हिन्दी साहित्य में वैसे लेखक रहे, जिन्होंने हमेशा ही समाज के स्याह पक्ष को सामने रखा। उन्होंने अपने कहानी, उपन्यास में जो कुछ भी लिखा वह तत्कालीन समाज की हकीक़त थी।

'गोदान' के होरी में किसान की दुर्दशा बयान की तो 'ठाकुर का कुंआ' में समाजिक हक से महरूम लोगों का दर्द। प्रेमचंद कलमकार नहीं अपने समय में कलम के मजदूर बनकर लिखते रहे। उनकी कृतियों में जाति भेद और उस पर आधारित शोषण तथा नारी की स्थिति का जैसा मार्मिक चित्रण किया गया, वह आज भी दुर्लभ है।

एक तरफ जहां प्रेमचंद भूख से विवश होकर आत्महत्या करते किसान की कहानी कहते थे तो दूसरी तरफ हामिद के लड़कपन में बुज़ुर्गों के लिए फ़िक्र दिखाकर लोगों का दिल छूने में सफल रहे।

आज प्रेमचंद का जन्मदिन है। उन्हें धनपत राय के नाम से भी जाना जाता था। उनका जन्म 31 जुलाई 1880 को वाराणसी के नज़दीक लमही गांव में हुआ था। उन्होंने कई कहानियां और उन्यास लिखे।

दुर्भाग्य की बात है कि प्रेमचंद अपनी कलम से साहित्य के कैनवस को तो रंगीन करते रहे लेकिन खुद का जीवन हमेशा गरीबी में बीता। जानेमाने आलोचक डॉ रामविलास शर्मा ने लिखा है कि - प्रेमचंद गरीबी में पैदा हुए, गरीबी में जिन्दा रहे और गरीबी में ही मर गये।

प्रेमचंद इसलिए अपनी सरल भाषा के लिए भी सबके बीच इतने लोकप्रिय हो गए। प्रेमचंद की भाषा सरल और सजीव और व्यावहारिक है। उसे साधारण पढ़े-लिखे लोग भी समझ लेते हैं। उसमें आवश्यकतानुसार अंग्रेज़ी, उर्दू, फारसी आदि के शब्दों का भी प्रयोग है। प्रेमचंद की भाषा भावों और विचारों के अनुकूल है। गंभीर भावों को व्यक्त करने में गंभीर भाषा और सरल भावों को व्यक्त करने में सरल भाषा को अपनाया गया है।

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने उनके बारे में बताया, 'प्रेमचंद ने अतीत का गौरव राग नहीं गाया, न ही भविष्य की हैरत-अंगेज़ कल्पना की। वह ईमानदारी के साथ वर्तमान काल की अपनी वर्तमान अवस्था का विश्लेषण करते रहे। उन्होंने देखा की यह बंधन भीतर का है, बाहर का नहीं। एक बार अगर ये किसान, ये गरीब, यह अनुभव कर सकें की संसार की कोई भी शक्ति उन्हें नहीं दबा सकती तो ये निश्चय ही अजेय हो जायेंगे।'

8 अक्टूबर 1936 को प्रेमचंद ने दुनिया को अलविदा कह दिया मगर आज भी ऐसा लगता है जैसे कहानी सम्राट प्रेमचंद अपने कहानियों के जरिए हम सब के बीच जिंदा हैं।