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2019 में बिहार में चाहिए राज तो नीतीश और NDA को ‘पप्पू’ का लेना होगा साथ

देश के सबसे बड़े राज्य यूपी के दो सीटों कैराना और नूरपुर सीट पर हुए उप-चुनाव में बीजेपी की हार ने साल 2019 के लिए एनडीए गठबंधन की तस्वीर ही बदल दी है।

Updated on: 09 Jun 2018, 12:15 PM

नई दिल्ली:

2019 के लोकसभा चुनाव के लिए सियासी बिसात बिछनी शुरू हो गई है। मोदी सरकार के साथ ही तमाम प्रदेशों की क्षेत्रीय पार्टियां और नेता सियासी फायदे के हिसाब से अपनी-अपनी गोटी सेट करने में जुट गए हैं। बिहार में भी ये तैयारी शुरू हो चुकी है और इसमें मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की पार्टी जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू) सबसे आगे दिख रही है।

देश के सबसे बड़े राज्य यूपी के दो सीटों कैराना और नूरपुर सीट पर हुए उप-चुनाव में बीजेपी की हार ने साल 2019 के लिए एनडीए गठबंधन की तस्वीर ही बदल दी है। अपने गढ़ में हारने के बाद बीजेपी अपने सहयोगी पार्टियों के ही निशाने पर आ गई है और सभी दलों को बीजेपी से दबाव बनाकर अपनी मांग मनवाने का मौका मिल गया है।

गुरुवार को पटना में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के सहयोगियों की बैठक से पहले ही नीतीश की पार्टी ने खुद को राज्य में बड़े भाई की भूमिका में होने की घोषणा कर दी और 40 में से 25 सीटों पर चुनाव लड़ने का दावा ठोक दिया। यानि की बिहार में एनडीए का मुख्य चेहरा नीतीश कुमार होंगे और उनकी पार्टी सबसे ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ेगी। पार्टी महासचिव केसी त्यागी कह भी चुके हैं कि एनडीए को नीतीश कुमार के सकारात्मक छवि का राज्य में लाभ उठाना चाहिए। न चाहते हुए भी बीजेपी को नीतीश की यह मांग माननी पड़ी और बिहार में बीजेपी के बड़े नेता सुशील मोदी ने नीतीश को राज्य में अपना नेता मान लिया।

2014 के लोकसभा चुनाव में एनडीए और बिहार में बीजेपी की सहयोगी रही राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (आरएलएसपी) को भला यह कैसे बर्दाश्त होता कि उसके रहते गठबंधन में जेडीयू का कद उससे भी बड़ा हो जाए।

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यही कारण है कि उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी आरएलएसपी ने गुरुवार को आयोजित एनडीए की बैठक में जाने से इनकार कर दिया और पार्टी अध्यक्ष कुशवाहा को अगले विधानसभा चुनाव के लिए मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करने की मांग कर दी। दरअसल इस मांग के जरिए आरएलएसपी लोकसभा चुनाव में अपने उम्मीदवारों के टिकट कटने की संभावना को खत्म करना चाहती है।

सहयोगी नाराज इसलिए बीजेपी को चाहिए नीतीश का साथ

बीते उप-चुनाव (फूलपुर,गोरखपुर, कैरान, नूरपुर, अररिया, जोकीहाट) में करारी हार और कर्नाटक में सबसे बड़ी पार्टी बनने के बाद भी सत्ता से दूर रह जाना बीजेपी के लिए एक सबक की तरह है। बीजेपी समझ चुकी है अगर सभी विपक्षी दल एक हो जाएं तो नरेंद्र मोदी के जादू और आंधी को न सिर्फ आसानी से रोका जा सकता है बल्कि उसे आसानी से मात भी जा सकता है। ऐसे में नीतीश कुमार बीजेपी के लिए किसी तुरुप के इक्के से कम नहीं है।

विशेष राज्य के दर्जे को लेकर चंद्र बाबू नायडू ने पहले ही एनडीए का साथ छोड़ दिया है और शिवसेना ने भी अमित शाह के संपर्क फॉर समर्थन को झटका देते हुए गठबंधन से अलग होकर चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया है। ऐसे में अपने सहयोगियों से जूझ रही बीजेपी किसी हालत में नीतीश कुमार को विपक्षी खेमे में जाने देने से रोकना चाहती है।

क्योंकि नीतीश कुमार की साफ छवि और विपक्षी दलों में उनकी स्वीकृति दूसरे नेताओं के मुकाबले कहीं ज्यादा है। इसके साथ ही नीतीश कुमार के संबंध मुख्य विपक्षी दलों के प्रमुख नेताओं चाहें वो ममता बनर्जी हों या एनसीपी प्रमुख शरद पवार या कोई दूसरा दल सबसे अच्छे हैं। यहां तक कि 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद एनडीए में दोबारा शामिल होने से पहले तक नीतीश को विपक्ष के पीएम उम्मीदवार और पीएम मोदी के खिलाफ सबसे बड़े चेहरे के रूप में देखा जा रहा था।

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शायद नीतीश कुमार भी इस बात को अच्छी तरह समझते हैं इसलिए वो भी एनडीए में अपनी मौजूदगी की पूरी कीमत वसूलना चाहते हैं। यही वजह है कि उप-चुनाव में हार के बाद उन्होंने विशेष राज्य के दर्जे की मांग तेज कर दी है और जिस नोटबंदी का कल तक समर्थन कर रहे थे उसे अब असफल बताने लगे हैं ताकि बीजेपी पर अप्रत्यक्ष रूप से दबाव बना सकें।

इस दबाव की वजब से अगर नीतीश कुमार बिहार को विषेश राज्य का दर्जा की जगह विशेष पैकेज दिलान में भी केंद्र की मोदी सरकार से सफल हो गए तो वो इसे निश्चित तौर पर आने वाले चुनाव में अपनी उपलब्धि के तौर पर भुना सकते हैं।

नीतीश को भी चाहिए कमल का साथ

अररिया के लोकसभा सीट और जोकीहाट के विधानसभा सीट पर हुए उपचुनाव के नतीजों ने साफ कर दिया है कि राज्य में करीब 17 फीसदी मुस्लिम आबादी ने लालू यादव के बाद उनके छोटे बेटे तेजस्वी यादव को अपना अगला नेता स्वीकार कर लिया है।

अररिया के दोनों सीटों पर आरजेडी के उम्मीदवार सरफराज और शाहनवाज ने क्रमश: जीत दर्ज की जबकि जोकीहाट सीट पर कई सालों से जेडीयू का कब्जा था। नीतीश कुमार ने इन दोनों ही सीटों पर अपनी पूरी ताकत झोंक दी थी लेकिन फिर भी एनडीए को हार का ही मुंह देखना पड़ा।

नीतीश समझ चुके हैं कि उनकी सोशल इंजीनियरिंग और बीजेपी के साथ फिर से जाना राज्य के अस्पसंख्यकों को पसंद नहीं आया वहीं दूसरी तरफ तेजस्वी यादव इस समुदाय को यह भरोसा दिलान में भी कामयाब हो गए हैं कि नीतीश कुमार ने उनके साथ विश्वासघात कर दिया है।

लालू यादव और उनके बेटे तेजस्वी यादव नीतीश कुमार को लेकर आए दिन तीखा बयान देते रहते हैं और नीतीश कुमार के इतिहास को देखते हुए अब मुश्किल ही है कि आरजेडी, लालू यादव या तेजस्वी नीतीश कुमार पर भविष्य में विश्वास जता पाएं।

ऐसे में नीतीश कुमार को भी सत्ता की धूरी में बने रहने के लिए किसी भी कीमत पर बीजेपी का साथ चाहिए होगा। क्योंकि आरजेडी और बीजेपी के अलावा नीतीश के पास राज्य में तीसरा कोई विकल्प नहीं है।

नीतीश कुमार के बीते दिनों लोक जनशक्ति पार्टी के अध्यक्ष रामविलास पासवान और आरएलएसी अध्यक्ष कुशवाहा के साथ बैठक से ऐसे कयास लगाए जा रहे थे कि वो बिहार में गैर बीजेपी और गैर आरजेडी दलों को साथ लाकर सत्ता चलाना चाहते हैं लेकिन धरातल पर ऐसी स्थिति अभी कम ही नजर आती है क्योंकि इन दोनों ही दलों का बिहार की भूमि पर राजनीतिक वजूद महज कुछ क्षेत्रों में सिमटा हुआ है।

लालू के लाल की बढ़ रही लोकप्रियता ने नीतीश की बढ़ाई चिंता

लालू यादव के जेल में रहते अररिया के लोकसभा और जोकीहाट के विधानसभा सीटों पर हुए उप-चुनाव में आरजेडी की जीत को तेजस्वी यादव की लोकप्रियता से जोड़कर देखा जा रहा है।

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हालांकि, अररिया में जीत का प्रमुख कारण सीमांचल के गांधी माने जाने वाले दिवंगत नेता तस्लीमउद्दीन की लोकप्रियता भी है। जीत भी इन्हीं के दोनों बेटों को आरजेडी के टिकट पर मिली है। वो अररिया में मुस्लिमों के बड़े रहनुमा के तौर पर जाने जाते थे लेकिन इसका क्रेटिड आरजेडी के अघोषित सर्वेसर्वा तेजस्वी यादव को मिला।

बिहार में लालू यादव का फॉर्मूला एमवाई समीकरण यानि की मुस्लिम और यादव का साथ अभी भी सत्ता की मंजिल तक पहंचने का सबसे उपयुक्त रास्ता माना जाता है । बिहार में मुस्लिमों की आबादी करीब 17 फीसदी के करीब हैं वहीं 2011 के जनगणना के मुताबिक करीब 11 फीसदी यादवों की आबादी है जिसमें निश्तिच तौर पर इन सात सालों में और बढ़ोतरी हुई है।

ऐसे में इन्हें जोड़ दे तो 28 फीसदी के करीब यह वोट बैंक लालू यादव के पास है और कांग्रेस के 2015 के 6.7 फीसदी का वोट प्रतिशत मिला दें तो 34.7 फीसदी हो जाएगा इसके अलावा कई दल हैं जिनके वोट लालू के साथ जुड़ सकते हैं। इसकी बदौलत तेजस्वी यादव आसानी से एनडीए और नीतीश कुमार को मात देकर अगले विधानसभा चुनाव में उन्हें धूल चटा सकते हैं। नीतीश कुमार के पास अपना ऐसा कोई जातिगत वोट बैंक नहीं है।

नीतीश कुमार के पास नहीं कोई वोट बैंक, विकास पर टिकी राजनीति

नीतीश कुमार कुर्मी समुदाय से आते हैं लेकिन उनके पास लालू यादव और अब तेजस्वी यादव की तरह कोई अपना मबजूत वोट बैंक नहीं है। बिहार में कुर्मी समुदाय की आबादी महज 2 से 3 फीसदी के बीच है।

नीतीश कुमार ने लालू यादव के मुकाबले राज्य में ज्यादतर समय विकासवाद की राजनीति ही की है। कुमार की छवि राज्य में समावेशी विकास, ईमानदार व्यक्तित्व और अल्पसंख्यकों का हित सोचने वाले नेता के तौर पर रही है। इसी बदौलत नीतीश आज तक बिहार की सत्ता पर भी काबिज हैं।

एनडीए में रहते हुए जहां बीजेपी ने 2005 के बाद से ही हिंदू वोट बैंक को साधा तो वहीं नीतीश कुमार ने लालू यादव के वोट बैंक में सेंध लगाकर कुछ अल्पसंख्यकों और दलितों को अपने पक्ष में लाने में सफलता पाई जो उनकी सामाजिक कमाई भी मानी जा सकती है।

लेकिन देश के बदले हुए हालात और ध्रवीकरण की राजनीति ने उन्हें दोबारा एनडीए में आने का शायद नकुसान ही दिया है जो अररिया के उप-चुनाव में साफ तौर पर दिखा। अब फिर से मुस्लिम मतदाता नीतीश कुमार से छिटक कर लालू यादव की पार्टी के करीब जाते दिख रहे हैं जो निश्चित तौर पर नीतीश कुमार के लिए चिंता की बात है।

हालांकि, नीतीश कुमार ने पासवान समुदाय को फिर से महादलित श्रेणी में शामिल करने का ऐलान किया जिसका उन्हें और एनडीए को आने वाले लोकसभा और विधानसभा चुनाव में फायदा मिल सकता है। बिहार में महादलित समुदाय की कुल आबादी करीब 16 फीसदी है जिसमें पासवान समुदाय के तहत 4 फीसदी दुषाध और करीब 3 फीसदी मुसहर आते हैं।

तेजस्वी को देनी है मात तो बिहार में एनडीए को चाहिए पप्पू का साथ

एक वक्त लालू यादव के बेहद विश्वासपात्र रहे सीमांचल के लोकप्रिय और बाहुबली नेता पप्पू यादव आरजेडी में उचित जगह नहीं मिलने के बाद बगावत में उतरकर अपनी पार्टी जन अधिकार मोर्चा बनाकर बिहार की राजनीति में ताल ठोक रहे हैं।

पूरे बिहार में तो उनकी पार्टी का प्रभाव नहीं है लेकिन सीमांचल में पप्पू यादव का बेहद प्रभाव माना जाता है। लालू की तर्ज पर ही पप्पू यादव भी सीमांचल में यादवों और मुस्लिमों को साथ लेकर राजनीति करते हैं। हालांकि उनके कुछ कामों और आम लोगों की मदद की बदौलत कमोबेश सभी समुदाय और धर्म के लोगों ने उन्हें अपना समर्थन दिया है।

सीमांचल में मुख्यतौर पर चार जिले पूर्णिया (7), अररिया (6), किशनगंज (4) और कटिहार (7) आते हैं। इन सभी जिलों में विधानसभा की कुल 24 सीटें और लोकसभा की चार सीटें आती है। इन सभी सीटों पर मुस्लिमों मतदाताओं का वोट प्रतिशत चुनाव नतीजे पर सीधे असर डालते हैं।

पप्पू यादव जिस मधेपुरा से आते हैं वहां और उसके आसपास इलाकों में यादवों की भी अच्छी खासी जनसंख्या जिसे पहले लालू यादव का वोटबैंक माना जाता है लेकिन यादव जाति से ही आने वाले पप्पू यादव ने इसमें सेंध लगा दी और पिछले लोकसभा चुनाव में शरद यादव जैसे मजबूत दावेदार को भी हरा दिया।

अगर नीतीश कुमार की अगुवाई में एनडीए को सीमांचल में अपनी स्थिति मजबूत करनी है तो उसके पास पप्पू यादव को गठबंधन में लाने के अलावा दूसरा कोई रास्ता नहीं है। पप्पू यादव अगर एनडीए को बहुत फायदा नहीं भी दिला पाये तो वो आरजेडी का सीधा नुकसान पहुंचाने की हैसियत तो रखते ही हैं।

बीते लोकसभा चुनाव को देखें तो पूरे देश में मोदी लहर के बावजूद बीजेपी या एनडीए को सीमांचल में कोई खास फायदा नहीं हुआ था और ज्यादातर जगहों पर उसे हार का ही सामना करना पड़ा था।

बिहार में एनडीए के सभी दल अभी से बीजेपी से मांग कर रहे हैं कि सीटों के बंटवारे पर एक साल पहले ही स्थिति साफ हो जानी चाहिए ताकि सभी दल इस पर सोच विचार कर चुनाव की तैयारी कर सकें।

इस मांग के पीछे एक कारण यह भी है कि सभी दल यह सोच रहे हैं कि अभी से अगर बीजेपी से सीटों को लेकर बात न बने तो उनके पास विपक्षी खेमे के सभी दरवाजे बंद होने से पहले ही कूद-फांद कर उस छत के नीचे जाने का रास्ता मिल सके।

लेकिन एक बात तो साफ है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए 2014 की तरह 2019 की राह आसान नहीं होगी और खासकर बिहार में बीजेपी को चुनाव होने से पहले तक पग-पग पर अपने सहयोगियों के आगे झुकना होगा।

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