logo-image

कहानियों का कोना: इतनी सी 'खुशी'...

इस कहानी में आप पढ़ेंगे कि एक अविवाहित लड़की के लिए किसी बच्चे को गोद लेने में उसे किस तरह की दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। यहां तक कि अपने ही घरवालों का गुस्सा सहना पड़ता है।

Updated on: 03 Aug 2018, 06:28 PM

नई दिल्ली:

तारीख़ रोज़ बदलती हैं, लेकिन कभी-कभी वक़्त वहीं ठहरा रहता है, किसी बंद खराब पड़ी घड़ी की तरह, जैसे मेरी ज़िंदगी में ठहरा हुआ था। आज चार रोज़ हो गए, घर में किसी से बात नहीं हो रही। मां रोज़ सुबह नाश्ते से लेकर रात की कॉफी तक सब मुझे दे जाती हैं, लेकिन एक लफ़्ज नहीं बोलतीं। पिताजी नें नज़रें मिलना बंद कर दिया है और भाई, वो किसी उलझन में है। सोचता होगा कि मेरा साथ दे या ना दे।

रात के 10 बज रहे थे। मैं अपने कमरे में स्टडीटेबल पर किताब लिए बैठी थी। हां, सिर्फ़ बैठी थी। निगाहें अक्षरों के बजाय कहीं और दौड़ रही थीं और मन पापा की कही बात में अटका हुआ था, "बददिमाग़ी करने के लिए कोई जगह नहीं है मेरे घर में। यहां शादी की उमर है और इनको बच्चा गोद लेने की पड़ी है।"

अगर इसे कोई फितूर कहे भी तो मुझे फ़र्क नहीं पड़ता। हां, मुझे गोद लेना था बच्चा, बल्कि बच्ची। मिल के भी आई थी उससे। खुशी नाम था उसका लेकिन सिर्फ़ नाम, निगाहों में एक उदासी ठहरी रहती थी उसके, जैसे वो जाने का रास्ता भूल गई हो।

चार रोज़ पहले जब मां ने रिश्ते के लिए आई तस्वीर और बायोडाटा दिखाया था तो मैंने उन्हें मना कर दिया था। "लोग क्या कहेंगे चारू और कैसे पालोगी उस बच्ची को अकेले?"

मां की आंसुओं में भीगी आवाज़ ने तमाम सवाल मेरे इर्द-गिर्द जकड़ दिए गए थे। अब उनको कैसे समझाती कि मुझे नहीं करनी थी शादी। मैं उन लड़कियों में से नहीं थी जो शादी का सपना लेकर बड़ी होती हैं और रही अपने परिवार की बात तो क्या ये गोद लिया बच्चा मेरा परिवार नहीं? क्या मैं उसे अपने बच्चे जितना प्यार नहीं करूंगी? या वो बदले में वापस मुझे प्यार नहीं करेगा?

सोचते हुए सिर भारी होने लगा तो मैंने किताब में बुकमार्क लगाकर रखा और सोने के लिए लेट गई। ज़िंदगी में भी एक बुकमार्क होना चाहिए। जहां से पढ़ना छोड़ा वहीं से शुरू कर सकें, लेकिन कहां होता है ऐसा? ज़िंदगी तो बढ़ती रहती है किसी ढलान वाले रास्ते पर न्यूट्रल गियर में चलते फोरव्हीलर की तरह।

मेरी ज़िंदगी भी चल ही रही थी। मां-पापा मेरे इस फ़ैसले को फितूर समझकर अपना काम कर रहे थे और मैं एडॉप्शन की कोशिशों में लगी हुई थी। आसान नहीं होता चाइल्ड अडॉप्शन। ख़ुद को तैयार करना पड़ता है। कानूनी तौर पर ये साबित भी करना होता है कि 'हां मैं तैयार हूं।' सिंगल पेरेंट से तमाम सवाल पूछे जाते हैं, बच्चे को पालेंगी कैसे? घर और बच्चा कैसे मैनेज करेंगी? और भी बहुत सारे। हमें उन सबका जवाब देना होता है। बिना हिचके, बिना अटके।

अगली सुबह मां रसोई में थीं। मैं चुपचाप काफ़ी देर से उनके पीछे खड़ी थी।

"मां", मैंने खुद को कम्पोज़ करते हुए उन्हें पुकारा। मां चुप रहीं। मैंने फिर कहा, "मां, अगर मैं शादी कर लूं और निभा ना पाउं तो आप लोग खुश रहेंगे क्या?"

मां ने मेरी ओर भवें उचकाकर देखा, "उन्नीस की उमर में आगए थे ब्याह कर। तू तो फिर भी 24 की है। चाहेगी तो निभा लेगी।"

"वही तो मां मैं नहीं चाहती। आप कहते हो ना कि बुढ़ापे में परिवार ज़रूरी है। तो वो होगी ना मेरा सहारा, मेरा परिवार। कितने बच्चे बिना परिवार के हैं... मैं उनमें से एक को परिवार देने जा रही हूं। उसे परिवार मिलेगा, नानी-नाना मिलेंगे..." मैं अपनी रौ में बहती कहती जा रही थी कि मां ने टोका, " तुझे शौक है गोद लिए बच्चे की मां बनने का तो बन। ना मैं नानी और ना वो मेरी पोती।"

मां पांव पटकती हुई रसोई से बाहर चली गईं और मैं वहीं खड़ी रही जाने कितनी देर। सोचती रही कि अगर मां-पापा ने उसे ना स्वीकारा तो क्या करना चाहिए मुझे? हर बार मन मुझसे सवाल पूछता और मैं चुप्पी साध जाती। समझ नहीं आ रहा था कि कैसे मनाउं उनको? अगर घर से अलग हो जाउं तो उस बच्चे को परिवार दे पाउंगी क्या? ज़रूरी था मेरे लिए खुशी को परिवार देना। मां के अलावा नानी-नाना का लाड़ देना। लेकिन कैसे करती मैं ये सब?

कुछ उलझनें खुद-ब-खुद सुलझती हैं और बेहतर सुलझती हैं। वरना सब कुछ जल्दी-जल्दी करने की ज़िद में हम स्थिति बिगाड़ने से कहां बाज़ आते हैं।

कुछ दिनों बाद ही एक शाम मैं अनाथ आश्रम में थी। छोटे-छोटे बच्चे आश्रम के कॉरीडोर में खेल रहे थे.... एकदम बेफ़िक्र। ऐसा ही होता है ना बचपन, जिसमें ना कोई फ़िक्र होती है ना परेशानी। बच्चों के इस झुंड में मेरी निगाह गुलाबी फ्रॉक पहने तीन साल की बच्ची पर टिकी थी। गोल-गोल आंखें, फूले हुए गाल और लंबे बालों में एक सफ़ेद क्लिप, यही खुशी थी।

"क्या नाम है आपका..." उसके सामने जाकर घुटने के बल बैठते हुए मैंने पूछा। "खुची..." उसने फूले गालों को थोड़ा और फुलाकर कहा।

"अरे वाह..." खुशी मेरा फेवरेट नाम है। मैंने कहते हुए उसके गाल हौले से छू दिए।

वो मुस्करा दी। शायद... ये हमारे बीच दोस्ती की शुरुआत थी। हां... दोस्ती ... किसी भी रिश्ते की नींव दोस्ती ही होती है। कागज़ी काम निबटाते हुए दिन बीत गया। कागज़ों पर साइन करते वक़्त मैं डर भी रही थी कि मां-पापा के बिना तैयार हुए इसको घर ले जाना ठीक रहेगा क्या? लेकिन अगले ही पल ख़्याल आता कि क्या पता इसे देखकर पिघल जाएं।

"मां... ये खुशी है।" शाम को मैं उसे लेकर घर पंहुच ही गई। मां मुझे हैरानी से देख रही थीं। पापा की आखों में कुछ था, कुछ नाराज़गी जैसा।

"खुशी हैलो बोलो।", मैंने अपने पीछे दुबकी खुशी से कहा। वो मेरे दुपट्टे का कोना मुंह में दबाए हुए हुए 'हैलो' बोलकर फिर छुप गई।

मैं बहुत देर तक मां-पापा के जवाब का इतंज़ार करती रही। किसी ने कुछ नहीं बोला। इतनी नाराज़गी वो भी इस बच्ची से। मां तो पड़ोस के बच्चों से कितना प्यार करती थीं... फिर खुशी से क्यों नहीं? गुस्से का गुबार आंखों में भरने लगा। मैंने खुशी को वहीं एक ऊंचे स्टूल पर बैठाया और भीतर रसोई में उसके लिए खाने-पीने का सामान लेने चली गई। सच बताउं तो मुझे उम्मीद नहीं थी मां या पापा के इस ठंडे रिएक्शन की।

मैंने सही तो किया ना? कहीं इस नन्ही जान के साथ ग़लत तो नहीं कर रही मैं। वहां आश्रम में इतके कितने दोस्त, कितने साथ बन गए होंगे। सोचते हुए मैंने ट्रे में कुछ बिस्कुट-चिप्स वगैरह रखे और बाहर की तरफ चल दी। अभी दरवाज़े पर ही पंहुची कि कदम ठिठक गए। पापा उसकी हथेली पर उंगलियों से खेल रहे थे और मां उसके बिखरे लंबे बालों को समटते हुए क्लिप लगा रही थीं।

मैं वहीं खड़ी रही उन्हें देखती रही। रिश्ते अपनी जगह खुद-ब-खुद बन रहे थे। सब कुछ ठीक होने लगा था। ये इतनी सी खुशी मेरी ज़िंदगी में शामिल हो ही गई थी। मैंने कहा था ना कि कुछ उलझनें खुद-ब-खुद सुलझती हैं और बेहतर सुलझती हैं।