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Birth Anniversary: जानें आंबेडकर के विचारों के साथ राजनीति जगत में बदलाव लाने वाले कांशीराम के बारे में

1984 में उन्होंने बीएसपी की स्थापना की. तब तक कांशीराम पूरी तरह से एक पूर्णकालिक राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ता बन गए थे. उन्होंने तब कहा था कि अंबेडकर किताबें इकट्ठा करते थे लेकिन मैं लोगों को इकट्ठा करता हूं.

Updated on: 15 Mar 2019, 11:31 AM

नई दिल्ली:

बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) की नींव रखने वाले और दलितों के सबसे बड़े नेता कांशीराम का आज जन्म दिवस है. संविधान निर्माता और दलित चिंतक बाबा साहेब आंबेडकर की विचारधारा को मजबूती के साथ आगे बढ़ाने वाले कांशीराम में भारतीय राजनीति और समाज में एक बड़ा परिवर्तन लाने वाले की भूमिका निभाई हैं. उन्होंने दलितों के लिए सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक अधिकारों की बात को सबको सामने लेकर आए. साथ ही सभी शोषित तबकों को अपने हक की बात लिए आवाज उठाने और लड़ने के लिए भी प्रेरित किया. जिस वजह से आज भी दलित समाज कांशीराम को अपने मसीहा मानते है.

कांशीराम का जन्म पंजाब के रोपड़ जिले में एक सिख दलित परिवार में 15 मार्च 1934 को हुआ था. उनका पूरा बचपन वहीं गुजरा और 1956 में रोपड़ के सरकारी कॉलेज से उन्होंने बीएससी की डिग्री ली. पढ़ाई के बाद कांशीराम ने पुणे में हाई एनर्जी मैटिरियल्स रिसर्च लैबोरेट्री में काम शुरू किया.

कांशीराम ने जाति व्यवस्था में सवर्णों के निचले तबके के लोगों पर अत्याचारों के खिलाफ बहुजनवाद का सिद्धांत दिया. बहुजनवाद में उन्होंने सभी एसटी, एससी और ओबीसी वर्ग को साथ लिया. उनका कहना था कि देश में 85 प्रतिशत बहुजनों पर 15 प्रतिशत सवर्ण राज करते हैं.

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दलितों की सामाजिक स्थिति और उनके उत्थान को लेकर अपनी आवाज हमेशा बुलंद रखने की वजह से ही उन्हें दलित नेता के रूप में जाना जाता है. कांशीराम को अपने वक्त के सबसे बड़े समाज सुधारक के रूप में भी जाना जाता है.

कांशीराम का राजनीतिक सफर

1981 में उन्होंने दलित शोषित समाज संघर्ष समिति या डीएस4 की स्थापना की. 1982 में उन्होंने 'द चमचा एज' लिखा जिसमें उन्होंने उन दलित नेताओं की आलोचना की जो कांग्रेस जैसी परंपरागत मुख्यधारा की पार्टी के लिए काम करते है. 1983 में डीएस4 ने एक साइकिल रैली का आयोजन कर अपनी ताकत दिखाई. इस रैली में तीन लाख लोगों ने हिस्सा लिया था.

1984 में उन्होंने बीएसपी की स्थापना की. तब तक कांशीराम पूरी तरह से एक पूर्णकालिक राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ता बन गए थे. उन्होंने तब कहा था कि अंबेडकर किताबें इकट्ठा करते थे लेकिन मैं लोगों को इकट्ठा करता हूं. उन्होंने तब मौजूदा पार्टियों में दलितों की जगह की पड़ताल की और बाद में अपनी अलग पार्टी खड़ा करने की जरूरत महसूस की. वो एक चिंतक भी थे और जमीनी कार्यकर्ता भी.

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कांशीराम ने साल 1984 में छत्तीसगढ़ के जांजगीर-चंपा से पहली बार लोकसभा चुनाव लड़ा. बीएसपी के गठन के बाद कांशीराम ने कहा था कि हम पहला चुनाव हारने के लिए लड़ेंगे. दूसरी बार लोगों की नजरों में आने के लिए और तीसरी बार जीतने के लिए चुनाव लड़ेंगे.

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उन्होंंने साल 1988 में इलाहाबाद लोकसभा सीट से कद्दावर नेता वी पी सिंह के खिलाफ चुनावी मैदान में उतरे. हालांकि उस चुनाव में कांशीराम को हार मिली लेकिन हार का अंतर चंद हजार वोट ही था.

कांशीराम ने दी मायावती को एक नई पहचान

कांशीराम जब दलितों को एकजुट कर रहे थे, तब मायावती वकालत की पढ़ाई के साथ आईएएस की तैयारी कर रही थीं. मायावती के भाषण से प्रभावित होकर वह उनके घर पहुंच गए. उन्हें राजनीति के लिए प्रेरित किया. मायावती ने भी उनके मिशन के लिए घर छोड़ दिया. उसके बाद कांशीराम ने मायावती को आगे बढ़ाना शुरू किया तो पार्टी के बड़े नेताओं ने उनका खूब विरोध किया. कांशीराम ने उनकी एक न सुनी और मायावती को निरंतर आगे ले जाते रहे.

कांशीराम मायावती के मार्गदर्शक के रूप में जाने जाते है. वहीं मायावती ने भी कांशीराम की राजनीति को आगे बढ़ाया और बीएसपी को राजनीति में एक ताकत के रूप में खड़ा किया है.

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गौरतलब है कि अपने जीवन में कांशीराम को कई बीमारियों से भी जूझना पड़ा. उन्हें एक बार हार्ट अटैक भी आ चुका था. इसके अलावा उन्हें डायबिटीज की बीमारी थी. 9 अक्टूबर 2006 को उन्हें फिर दिल का दौरा पड़ा और दिल्ली में उस दिन कांशीराम ने अंतिम सांस ली.