कांग्रेस नेता सैफ़ुद्दीन सोज़ ने परवेज़ मुशर्रफ़ को ठहराया सही, कहा- कश्मीरी आज़ाद रहना पसंद करेंगे
सैफ़ुद्दीन सोज़ ने एक बयान में कहा कि अगर कश्मीरियों के विवेक पर जम्मू-कश्मीर का फ़ैसाला छोड़ा जाए तो वो आज़ाद रहना पसंद करेंगे।
नई दिल्ली:
बीजेपी द्वारा अचानक पीडीपी का साथ छोड़ने के फ़ैसले से जम्मू-कश्मीर में पैदा हुए सियासी संकट के बीच कांग्रेस के वरिष्ठ नेता सैफ़ुद्दीन सोज़ ने एक बड़ा बयान दिया है।
सैफ़ुद्दीन सोज़ ने एक बयान में कहा कि अगर कश्मीरियों के विवेक पर जम्मू-कश्मीर का फ़ैसाला छोड़ा जाए तो वो आज़ाद रहना पसंद करेंगे।
सोज़ ने पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ़ का हवाला देते हुए कहा, 'एक बार मुशर्रफ़ ने कहा था कि यदि कश्मीरियों को अपने विवेक से फ़ैसला लेने को कहा जाए तो वो आज़ाद रहना पसंद करेंगे। मुशर्रफ़ का यह मुल्यांकन आज के दौर में भी काफी प्रासांगिक जान पड़ता है।'
हालांकि बाद में एएनआई से बात करते हुए सोज़ ने कहा, 'मुशर्रफ़ ने कहा था कश्मीरी पाकिस्तान के साथ जुड़ना नहीं चाहेंगे। वो आज़ाद रहना ज़्यादा पसंद करेंगे। यह कथन तब और अब दोनों संदर्भ में सही है। मैने भी यही कहा लेकिन यह संभव नहीं है।'
बता दें कि पाकिस्तान के राष्ट्रपति रहते हुए परवेज़ मुशर्रफ़ ने कश्मीरी लोगों के लिए जनमत संग्रह कराने की बात कही थी। इतना ही नहीं मुशर्रफ़ ने कश्मीर से सैनिकों को धीरे-धीरे हटाने का भी सुझाव दिया था।
बता दें कि अगले हफ़्ते सैफ़ुद्दीन सोज़ की किताब 'कश्मीर: ग्लिमप्सेज़ ऑफ़ हिस्टरी एंड द स्टोरी ऑफ़ स्ट्रगल' लांच हो रही है।
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सोज़ ने इस किताब में कश्मीर का समाधान निकालने की ज़िम्मेदारी केंद्र सरकार पर देते हुए कहा कि अगर कश्मीरियों के लिए कुछ अच्छा करना चाहते हैं तो उनसे बातचीत शुरू करें। इतना ही नहीं सोज़ ने केंद्र सरकार को हुर्रियत नेताओं के साथ खुले तौर पर बात करने की भी नसीहत दी है।
उन्होंने कहा है कि 1953 से लेकर आज तक नेहरू और इंदिरा गांधी की सभी सरकारों ने जम्मू-कश्मीर को लेकर कोई न कोई ग़लती ज़रूर की है।
कांग्रेस के वरिष्ठ मंत्री ने कश्मीर मुद्दे को लेकर मुशर्रफ़-वाजपेयी-मनमोहन के फॉर्मूले का जिक्र करते हुए कहा कि दोनों देशों के बीच संबंध बढ़ने चाहिए, आवाजाही बढ़नी चाहिए जब दोनों देशों के लोग करीब आएंगे तो ही बात बनेगी।
धारा 370 पर बात करते हुए सोज़ ने कहा कि भारत सरकार को पहले ही इस बारे में सोचना चाहिए था कि दिल्ली और शेख़ अब्दुल्ला के बीच 1952 में जो समझौता हुआ था वह सही तरीके से लागू नहीं हो पाया।
उन्होंने आगे कहा कि नेहरू सरकार द्वारा शेख़ अब्दुल्ला को असंवैधानिक रूप से गिरफ्तार करना सबसे बड़ी भूल थी। आगे चलकर नेहरू ने भी यह बात मानी कि कश्मीर में उनकी नीति सही नहीं थी।
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