logo-image

16 साल में केवल 35 लोगों ने दान किया 'बोन', 300 लोगों की बची जिंदगी

विकलांगों को दिव्यांगों का नाम तो सरकार ने दिया लेकिन बोन डिसीज के बढ़ते मामलों पर रोक लगाने की कोई ठोस योजना नहीं बनाई गई। जन्म से दिव्यांगों की तुलना में कई गुना ज्यादा लोग बोन डिसीज से देशभर में दिव्यांग हो जाते हैं।

Updated on: 15 Jun 2017, 10:52 PM

नई दिल्ली:

विकलांगों को दिव्यांगों का नाम तो सरकार ने दिया लेकिन बोन डिसीज के बढ़ते मामलों पर रोक लगाने की कोई ठोस योजना नहीं बनाई गई। जन्म से दिव्यांगों की तुलना में कई गुना ज्यादा लोग बोन डिसीज से देशभर में दिव्यांग हो जाते हैं। एक्सिडेंट से भी दिव्यांगों की संख्या में खासा इजाफा होता है।

दूसरी तरफ देश में बोन डोनेशन की हालत इतनी खस्ता है कि देश के सबसे बड़े अस्पताल एम्स में पिछले 16 सालों में सिर्फ 35 लोगों ने बोन डोनेशन किया है। हालांकि इन 35 लोगों की मदद से 300 मरीजों को नया जीवन मिला है।

डिपार्टमेंट ऑफ ऑर्थोपेडिक्स के HOD डॉक्टर राजेश मल्होत्रा का कहना है कि ऑर्गन डोनेशन मामले में भारत सबसे पिछड़ा देश हैं। स्पेन में जहां 10 लाख में 30 लोग तो वहीं अमेरिका में 25 लोग ऑर्गन डोनेट करते हैं वहीं भारत में 10 लाख में से महज 0.5 प्रतिशत हैं उसमें भी बोन डोनेशन को लेकर भारी उदासीनता है।

और पढ़ें: वेस्टर्न फूड से बढ़ सकता है अल्जाइमर का खतरा, रिसर्च में हुआ खुलासा

डॉक्टर्स के मुताबिक आर्टिफिशियल बोन रिप्लेसमेंट मरीजों में कारगर उपाय नहीं है। जबकि उसकी तुलना में ओरिजिनल बोन रिप्लेसमेंट मरीजों को नया जीवन देती है। ओरिजिनल बोन की कोई एक्सपायरी नहीं होती है। यह मरीज की उम्र तक जीवित रहती है।

आंकड़ों के मुताबिक भारत में घुटने, कमर के निचले हिस्से के जॉइंट्स क्षतिग्रस्त होने के अलावा हड्डियों के कैंसर के मामले भी लगातार बढ़े हैं। इससे हड्डियों के गलने या खराब होने के बहुत सारे मामले होते हैं वहीं एक्सीडेंट की स्थिति में हाथ या पैर की हड्डी ज्यादातर डैमेज हो जाए तो भी आर्टिफिशियल की जगह ओरिजिनल बोन लगाकर जिंदगी बदली जा सकती है।

और पढ़ें: सेचुरेटेड फैट फूड खाने से बढ़ सकता है प्रोस्टेट कैंसर का खतरा

एक व्यक्ति के बोन डोनेशन से 20 लोगों को नया जीवन मिल सकता है, उसकी दिव्यांगता दूर हो सकती है। दिलचस्प बात ये है कि बोन डोनेशन के बाद उसे एक्सरे के जरिए स्टारलाइट किया जाता है जिससे इंफेक्शन की संभावना खत्म हो जाए और इसे माइनस 80 डिग्री में 5 साल तक रखा जा सकता है।

जब इसे किसी जरूरतमंद के शरीर में सर्जरी के जरिए फिट किया जाता है तो शरीर आसानी से इसे स्वीकार कर लेता है यानी लीवर किडनी या हर्ट की तरह बोन को मैच कराने की जरूरत नहीं होती है। जाहिर है देश में अगर दिव्यांगता के बोझ को कम करना है तो वह डोनेशन को एक मुहीम के रूप में खड़ा करना होगा।