जन्मदिन विशेष: अल्लामा इक़बाल, 'तराना-ए-हिन्द' लिखने वाला शायर जो अक्सर रहा कट्टरपंथियों के निशाने पर
इतिहास कई बार आपके साथ न्याय नहीं करता और इकबाल कई मौकों पर इसका शिकार होते रहे है। इकबाल को किसी एक खांचे में रख पाना बहुत मुश्किल है।
नई दिल्ली:
इतिहास कई बार आपके साथ न्याय नहीं करता और इकबाल कई मौकों पर इसका शिकार होते रहे है। इकबाल को किसी एक खांचे में रख पाना बहुत मुश्किल है। अल्लामा इक़बाल की शायरी किसी नई सुबह की पहली किरण जैसी है। उन्होंने नज़्म की शक्ल में उर्दू शायरी को एक बेमिसाल रचना दी है।
1-इकबाल मूलतः कश्मीरी ब्राह्मण थे जिनके पुरखों ने इस्लाम स्वीकार कर लिया
9 नवम्बर 1877 को सियालकोट पैदा हुए इकबाल मूलतः कश्मीर के रहने वाले थे। उनके पुरखों ने उनके जन्म से तीन सदी पहले इस्लाम स्वीकार कर लिया था। 19 वीं शताब्दी में कश्मीर पर सिक्खों का राज था तब उनका परिवार पंजाब आ गया। उनके पिता शेख नूर मोहम्मद सियालकोट में दर्जी का काम करते थे। महज चार साल की उम्र में उनका दाखिला मदरसे करवा दिया गया। तालीम का यह सिलसिला लम्बा चला। इकबाल ने कानून, दर्शन,फारसी और अंग्रेजी साहित्य की पढाई की।
2- 'मिर्जा गालिब' और 'अल्लामा इकबाल' जुदा अंदाज वाले दो शायर
'मिर्जा गालिब' और 'अल्लामा इकबाल' दो ऐसे नाम जिनके बिना उर्दू साहित्य की कल्पना तक नहीं की जा सकती है। अगर उर्दू साहित्य को देखे तो मीर के बाद इन दोनों का ही नाम आता है। उर्दू-फारसी में लिखने वाले इन दोनों शायरों का अंदाज एक दूसरे से बिलकुल जुदा था। दोनों के जुदा अंदाज का एक उदाहरण देखिए
मिर्ज़ा ग़ालिब
उड़ने दे इन परिंदों को आजाद फिजा में ए ग़ालिब,
जो तेरे अपने होंगे वो लौट आएंगे किसी रोज़
अल्लामा इकबाल
ना कर ऐतबार इन परिंदों पर ए इकबाल
जब 'पर' निकल आते हैं तो अपने भी आशियाना भूल जाते हैं
3-सारी जिंदगी हिन्दू और मुस्लिम कट्टरपंथियों के निशाने पर रहे
इकबाल खुद सारी जिंदगी हिन्दू और मुस्लिम कट्टरपंथियों यानी दोनो पालों के उग्रपंथियों का शिकार रहे। इस को लेकर उन्होंने खुद कहा हैं-
जाहिद-ए-तंग नजर ने मुझे काफिर जाना
और काफिर ये समझता है मुसलमान हूं मैं
हालांकि वो हमेशा से मानते रहे कि हिन्दू और मुसलमान सांस्कृतिक तौर पर बहुत अलग हैं। अलग मुस्लिम राज्य की मांग के पीछे यही सबसे मजबूत तर्क था। लेकिन वो राम को ‘इमामे-ए-हिन्द’ भी बताते हैं।
4- उनकी नज्म कई जगह प्रार्थना के रूप में गाई जाती है
उनकी नज्म ‘लब पर आती है दुआ बनके तमन्ना मेरी’ का आज भी कई स्कूलों में रोजाना पढ़ा जाता है।
लब पे आती है दुआ बन के तमन्ना मेरी
जिंदगी शमा की सूरत हो खुदाया मेरी
दूर दुनिया का मेरे दम से अंधेरा हो जाए
हर जगह मेरे चमकने से उजाला हो जाए
5-देश का 'तराना-ए-हिन्द' लिखने वाले इकबाल
'सारे जहां से अच्छा हिन्दुस्तां हमारा' 16 अगस्त 1904 को ‘इत्तेहाद’ में उनका लिखा यह अमर गीत पहली बार प्रकाशित हुआ था। तराना-ए-हिन्द नाम से परिचित इस गीत को पहली बार लाहौर के एक सरकारी कॉलेज में गाया गया था और आज भी भारतीय सेना मार्च के दौरान यही गीत दोहराती है।
6- भारत में मौजूद जाति व्यवस्था से इकबाल बहुत खफा थे। उन्होंने इसके लेकर लिखा
आह! शूद्र के लिए हिन्दोस्तां गम-खाना है
दर्द-ए-इसानी से इस बस्ती का दिल बेगाना है
7-राम को इमाम-ए-हिंद समझते थे इकबाल
हे राम के वजूद पे हिन्दोस्तां को नाज
अहले नजर समझते हैं उसको इमाम-ए-हिन्द
अल्लामा इक़बाल राम को ‘फ़र्द‘ कहते हैं वीरता में, पाकीज़गी में और मुहब्बत में और वे उन्हें तलवार का धनी भी बताते हैं। ‘फ़र्द‘ उस आदमी को कहा जाता है जो किसी खूबी में अपनी मिसाल आप हो, वह खूबी उस दर्जे में उस समय किसी में भी न पाई जाती हो।
8-धर्म को लेकर कुछ इस तरह की सोच थी इकबाल की
धर्म को लेकर उनकी अपनी एक अलग समझ थी। वो धर्म की अपनी परिभाषा मानते थे। उन्होंने अपने एक शेर में कहा कि लोग सुने-सुनाए पर यकीन करके उसे धर्म मान लेते हैं जबकि ज्ञानियों का मजहब आखों देखे पर विश्वास करना है।
गुफ्त दीन-ए-आमियां?गुफ्तम शनीद
गुफ्त दीन-ए-आरिफां? गुफ्तम की दीद
इकबाल 1938 में उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया। उन पर मजहबी शायर होने के कई आरोप लगे। इन आरोपों को समीक्षक अपनी-अपनी नजर से देखते हैं, लेकिन उनका लिखा एक शेर आज भी भारत की अनेकता में एकता की पहचान को उजागर करता है।
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मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना
हिन्दी हैं हम वतन हैं हिन्दोस्तां हमारा
मुल्क के बटवारे के बाद बेशक इकबाल पाकिस्तान के हो गए हो पर उनके लिखे गीत, शेर और नज़्म को किसी सरहद में कोई बांध नहीं सकता।
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