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देश की स्वास्थ्य व्यवस्था बेहाल, लूटते अस्पतालों पर कौन कसेगा लगाम?

फोर्टिस हेल्थकेयर अस्पताल में एक डेंगू मरीज से 16 लाख बिल वसूलने का मामला सामने आने के बाद देश की मौजूदा स्वास्थ्य सेवा की तस्वीर पर बड़ा सवाल खड़ा कर दिया है।

Updated on: 27 Nov 2017, 09:38 PM

नई दिल्ली:

फोर्टिस हेल्थकेयर अस्पताल में एक डेंगू मरीज से 16 लाख बिल वसूलने का मामला सामने आने के बाद देश की मौजूदा स्वास्थ्य सेवा की तस्वीर पर बड़ा सवाल खड़ा कर दिया है।बच्ची अब इस दुनिया में नहीं रही, लेकिन मासूम को खोने वाले अभिभावकों के ढेरों आरोप मौजूद हैं।

आरोप है कि बच्ची की मौत के बाद भी अस्पताल इलाज का दावा करता रहा है। 

लेकिन गौर करने वाली बात है कि डेंगू जैसी बीमारी के 15 दिन के इलाज के लिए 16 लाख का बिल! इस खबर के मीडिया में आने के बाद स्वास्थ्य मंत्रालय ने अस्पताल से रिपोर्ट मांगी है । वहीं अस्पताल का दावा है कि अस्पताल ने सभी नियमों का पालन किया है।

मंहगा इलाज, कर्ज में जाते भारतीय!

एक रिपोर्ट के मुताबिक बीते एक दशक में करीब साढ़े पांच करोड़ लोग सिर्फ मंहगे इलाज के चलते ही गरीबी रेखा के नीचे आ गए हैं। देश की 60 प्रतिशत आबादी इलाज के लिए अपनी हैसियत से कई गुना ज्यादा खर्च करने को मजबूर है।

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हालात इतने भयावह हैं कि 25 फीसदी ग्रामीण जबकि 18 फीसदी शहरी आबादी कर्ज लेकर अस्पताल के बिल का भुगतान करने को मजबूर है।

बदहाल सरकारी अस्पताल और लंबी भीड़ के चलते मरीज करे भी तो क्या करे। कुछ समय पहले न्यूज़ नेशन ने ही दिल्ली के सरकारी अस्पतालों की बदहाली दिखाई थी, जिसका अदालत ने भी संज्ञान लिया था!

बदहाल स्वास्थ्य ढांचा

इस वक्त देश में 42 हजार स्वास्थ्य केन्द्रों की कमी है। एक तरफ जहां शहरी इलाकों में 4,25,869 बिस्तर की सुविधा है, वहीं ग्रामीण इलाके में महज 2,09,010 बिस्तर हैं, जबकि देश की 70 फीसदी आबादी गांव में ही बसती है।

वजह है कम सरकारी खर्च। सेहत के मोर्चे पर जीडीपी का तीन फीसदी खर्च होना चाहिए, लेकिन आज भी महज 1.4 फीसदी ही खर्च हो रहा है। कम सरकारी खर्च के मामले में हम बांग्लादेश और अफगानिस्तान के साथ खड़े हैं, ​जिसका सीधा असर आम आदमी की जेब पर पड़ता है ।

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लगाम कसने को 'माननीय' ईमानदार नहीं!
साल 2010 में संसद में 'क्लीनिकल इस्टेब्लिशमेंट रेगूलेशन बिल' पेश किया गया था। मकसद था निजी अस्पतालों की लूट पर लगाम लगाना, लेकिन इसके कानून बनने से पहले ही विरोध शुरू हो गया। 

राज्यों ने दलील दी कि स्वास्थ्य राज्यों का विषय है, लिहाजा केन्द्र दखल नहीं दे सकता। स्वास्थ्य संगठनों ने लाइसेंस राज को बढ़ावा मिलने की आशंका के तर्क के साथ इसका विरोध किया। लेकिन आज तक एक—दो राज्यों को छोड़कर कहीं भी ऐसी जरूरी सख्ती नहीं दिख सकी! सवाल ईमानदारी का है।

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क्यों ना सबको मिले फ्री इलाज?
वैसे हमारे मुल्क में 80 फीसदी से ज्यादा भारतीय आबादी का स्वास्थ्य बीमा नहीं है। क्षेत्रवार समझें तो 86 फीसदी ग्रामीण जबकि 82 फीसदी शहरी आबादी किसी भी स्वास्थ्य योजना के तहत कवर नहीं है।

जाहिर है सेहत के मोर्चे पर भारत दुनियाभर में काफी पीछे है। ऐसे में जरूरी है कि इस लोक कल्याणकारी मुल्क में सरकार 'यूनिवर्सल हैल्थ कवरेज' जैसी जरूरी योजनाओं को लागू करने पर विचार करे। ताकि गरीबों को समय पर इलाज मिल सके।

वैसे भी दुनिया के करीब 50 मुल्कों में इस तरह की योजनाएं मौजूद हैं। इसके साथ ही सरकारों को निजी अस्पतालों की इस लूट पर लगाम लगाना होगा ताकि किसी की जिंदगी भर की जमा पूंजी ऐसे बर्बाद ना हो! जरूरत है कि इस मुद्दे पर नीति-निर्माता ईमानदारी से विचार करें।

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