पीएम नरेंद्र मोदी की बंपर जीत के 10 बड़े मायने, क्या विपक्ष लेगा सबक
इस जीत से विपक्ष को जहां सांप सूंघ गया है, वहीं आमजन से लेकर राजनीतिक हवा की नब्ज पकड़ने का दावा करने वाले राजनीतिक पंडितों को भी नई समझ विकसित करनी पड़ रही है.
highlights
- बीजेपी का वोट शेयर 2019 में 37.5 फीसदी से अधिक पहुंचने की उम्मीद.
- यूपी में भी बीजेपी ने 7 फीसदी से अधिक हासिल किए वोट.
- 2019 का परिणाम मोदी के 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' की जीत.
नई दिल्ली.:
अगर एक तबका प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की 2019 लोकसभा चुनाव में दोबारा जीत के प्रति पूरी तरह से आश्वस्त था, तो एक वर्ग ऐसा भी था जो जीत के दावों को झुठला बहुमत से दूर रहने की बात कर रहा था. हालांकि परिणाम आने के बाद सभी ने एक स्वर में कहना शुरू कर दिया कि मोदी लहर ने 2019 में 2014 की जीत को भी फीका कर दिया. इस जीत से विपक्ष को जहां सांप सूंघ गया है, वहीं आमजन से लेकर राजनीतिक हवा की नब्ज पकड़ने का दावा करने वाले राजनीतिक पंडितों को भी नई समझ विकसित करनी पड़ रही है. ऐसे में जानने की कोशिश करते हैं 2019 लोकसभा चुनाव परिणामों के 10 बड़े मायने क्या हैं...
32 फीसदी नए वोटरों ने जताया मोदी पर भरोसा
शुक्रवार दोपहर तक बीजेपी अकेले दम 302 सीट जीत चुकी थी और एक सीट पर आगे चल रही थी. 2014 के जीत के आंकड़ों के लिहाज से बीजेपी 21 सीटें अधिक जीतने में सफल रही है. बीते लोकसभा चुनाव की तरह ही 2019 में भी भगवा रंग देश पर गहराई से चढ़ा नजर आया. नए क्षेत्रों में जीत के साथ बीजेपी का वोट शेयर पिछली बार के 31 फीसदी के मुकाबले 2019 में 37.5 फीसदी से अधिक पहुंचने की उम्मीद है. इसका एक अर्थ यह निकलता है कि 2019 में लगभग 60.37 करोड़ मतदाताओं ने मतदान किया, जिसमें से 22.6 करोड़ वोटरों ने बीजेपी पर ही विश्वास जताया. वोटरों के लिहाज से देखें तो बीजेपी ने 32 फीसदी नए मतदाताओं को आकर्षित किया है. 2014 लोकसभा चुनाव में बीजेपी को 17.1 करोड़ वोटरों ने चुना था.
अमेरिकी प्रेसिडेंट स्टाइल प्रचार
2014 का लोकसभा चुनाव हो या 2019 का, जनता के सामने चेहरा एक ही था नरेंद्र मोदी का. एक उदाहरण से समझिए. पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर की एक रैली में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के भाषण के दौरान मौजूद भीड़ के साथ बीजेपी कार्यकर्ता भी उम्मीदवार भोला सिंह के खिलाफ नारेबाजी कर रहे थे. जब चीजें काबू से बाहर होने लगीं तो योगी ने उग्र लोगों को शांत करने की कोशिश करते हुए कहा, 'शांत हो जाइए. आप लोग मोदीजी के लिए वोट कर रहे हैं.' यानी अमेरिकी राष्ट्रपति शैली में चुनाव लड़ने की रणनीति का फायदा बीजेपी को मिला. चुनाव पीएम मोदी के लिए 'जनमत संग्रह' बतौर पेश किए गए और परिणाम सबसे सामने है.
यूपी में भी 7 फीसदी बढ़े नए मतदाता
उत्तर प्रदेश महागठबंधन पर एक शेर सही बैठता है. 'बड़ा शोर सुनते थे पहलू में दिल का, जो चीरा तो इक क़तरा-ए-ख़ूँ न निकला' की तर्ज पर महागठबंधन को बीजेपी के लिए बड़ा खतरा बताया गया. सपा, बसपा औऱ रालोद की गलबहियों से बना यह महागठबंधन कागजी शेर भी साबित नहीं हुआ. बीजेपी ने यूपी में 2014 की 71 सीटों के मुकाबले बीजेपी और उसके सहयोगियों ने 64 सीटें जीती हैं. सपा-बसपा ने 15 सीटों पर कब्जा किया. यूपी के लगभग आधे मतदाताओं का वोट बीजेपी के खाते में आया है. यह आंकड़ा 2014 लोकसभा चुनाव के तुलनात्मक आंकड़ों के लिहाज से 7 फीसदी अधिक है. कह सकते हैं कि मोदी लहर महागठबंधन पर भारी पड़ी.
बंगाल-ओड़िशा के किले में सेंध
बीजेपी ने उत्तर प्रदेश में जो गंवाया, उससे कहीं ज्यादा तो सिर्फ पश्चिम बंगाल और ओड़िशा से कमा लिया. बंगाल में बीजेपी ने 18 सीटों के साथ ही 40 फीसदी से अधिक लोकप्रिय वोटों पर कब्जा जमाया है. 2014 में यह दर 2 सीट और 17 फीसदी वोट थे. ओड़िशा में भी बीजेपी को 38 फीसदी वोट मिले. नतीजतन 2014 की महज एक सीट के खाते को पार्टी ने 8 सीटों तक पहुंचाया. वोट हासिल करने की यह दर 16 फीसदी अधिक है.
उम्मीदों पर भारी 'भय' की राजनीति
अगर 2014 और 2019 के चुनाव प्रचार को तटस्थ भाव से देखें तो पता चलेगा कि इस लोकसभा चुनाव में नकारात्मक प्रचार ज्यादा हुआ है. सिर्फ जुबानी मुंहखर्च या तीखी टिप्पणियों को छोड़ भी दें, तो इस बार पीएम मोदी या उनके सिपाहसालारों ने कई बार उस 'भय' को उजागर किया, जो इस बात से जुड़ा था कि यदि मोदी नहीं आए तो क्या होगा. इसके उलट 2014 का लोकसभा चुनाव 'अच्छे दिन आएंगे' की थीम के साथ बेहतर दिनों, सुशासन के लिए लड़ा गया. इस बार कहा गया कि यदि पीएम मोदी दोबारा नहीं आए तो 'टुकड़े-टुकड़े गैंग', 'जय श्रीराम बोलने वालों को जेल', 'हाफिज सईद जी' को चाहने वाले छा जाएंगे. यानी कहीं न कहीं दिखाया गया 'भय' भी वोट बनकर बीजेपी पर बरसा.
5 पर भारी 60 साल
पीएम मोदी और बीजेपी एक संदेश देने में सफल रहे कि आजादी के 60 साल बाद जो कुशासन कांग्रेस ने दिया है, उसे बदलने में 5 साल पर्याप्त नहीं हैं. ऐसे में बीजेपी को एक दूसरा कार्यकाल तो मिलना ही चाहिए ताकि अब तक हुई 'गल्तियों' को दुरुस्त किया जा सके. बीजेपी और पीएम मोदी खासकर इस संदेश को देने और जनता को अहसास कराने में पूरी तरह से सफल रहे कि कांग्रेस सरकारों की गलत नीतियों और योजनाओं को पटरी पर लाने के लिए औऱ वक्त की दरकार.
तुक्का नहीं थी 2014 की जीत
यह एक बड़ा संदेश या सबक मिला है विपक्ष को 2019 लोकसभा चुनाव में. कई राजनीतिक पंडितों ने 2014 की जीत को एक तुक्का करार दिया था. उनका कहना था कि तब कांग्रेस से नाराज मतदाताओं ने मोदी को अपना विकल्प चुन जरूर लिया था, लेकिन पांच सालों के शासन में मोदी का खुमार उनके जेहन से उतर चुका है. 2019 का लोकसभा चुनाव उन्हें गलत साबित कर यह कड़ा सबक सिखा गया कि मोदी महज तुक्के में जीत कर नहीं आया था. 2019 का परिणाम मोदी के 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' की जीत पर मुहर भी है. साथ ही राष्ट्र गौरव का भाव आम लोगों के सिर चढ़कर बोला है.
शहर औऱ ग्रामीण भारत आए करीब
अक्सर कहा जाता था कि शहर और ग्रामीण मतदाताओं का वोटिंग पैटर्न अलग होता है. 2019 के लोकसभा चुनाव ने इस अंतर को पाटने का काम किया है. बीजेपी खासकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को मिली जबर्दस्त जीत ने सिद्ध कर दिया है शहरी और ग्रामीण मतदाताओं ने एक जैसी सोच के साथ मताधिकार का इस्तेमाल किया. अगर शहर-गांव में कोई अंतर रहा तो जीत के अंतर में ही दिखा. अन्यथा बीजेपी या कहें कि मोदी लहर समान रूप से चली. कह सकते हैं कि पुलवामा आतंकी हमला और जवाबी कार्रवाई में बालाकोट सर्जिकल स्ट्राइक का संदेश लोगों ने वैसे ही लिया जैसे बीजेपी ने उन्हें देना चाहा.
राष्ट्रवाद की आंधी में ध्वस्त जातिवाद
विपक्ष ने यूपी और बिहार में 2019 का पूरा लोकसभा चुनाव जाति के आधार पर लड़ने की योजना बनाई थी. चुन-चुन कर ऐसे दलों को साथ लाया गया जिनका कुल वोट बैंक बीजेपी पर भारी पड़ा. हालांकि मोदी का राष्ट्रवाद जाति की गणित पर बहुत ज्यादा भारी पड़ा. 2019 का लोकसभा चुनाव परिणाम साफ-साफ बताता है कि अब नए मतदाता जात-पात के जाल में फंसने वाले नहीं हैं. सिर्फ यूपी-बिहार क्यों..हरियाणा, गुजरात, राजस्थान और महाराष्ट्र में भी मतदाताओं ने जाट, पाटीदार और मराठी अस्मिता की बात करने वालों को भी बता दिया कि काम करो.
किसान और रोजगार मुद्दा होते हुए भी नहीं बना
यह एक बड़ा सवाल है कि कांग्रेस और शेष विपक्ष द्वारा जोर-शोर से उठाए गए बेरोजगारी और किसान समस्या आम लोगों को प्रभावित करने में सफल नहीं रहे. वह भी तब जब ये दोनों ऐसे मुद्दे हैं, जो लोगों से सीधे तौर पर जुड़ते हैं. इसकी एक बड़ी वजह यही है कि कांग्रेस या अन्य विपक्ष इन्हें सही तरीके से भुना नहीं सके. इसके विपरीत इन दोनों मुद्दों से प्रभावित लोगों को लगा कि 'मोदी है तो मुमकिन है'. यानी अगर मोदी दोबारा प्रधानमंत्री बनकर आता है, तो बेरोजगारी और किसान समस्याओं को भी खत्म किया जा सकेगा. हालांकि साफतौर पर यह विपक्ष की नाकामी है कि वह राफेल, सूट-बूट की सरकार की बात करता रहा, जो वास्तव में मोदी सरकार के लिए ही हवा बनाने में मददगार साबित हुए.
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