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क्या राहुल को कांग्रेस में आगे बढ़ाने के लिए मां सोनिया ने प्रियंका की एंट्री पर लगा रखी थी रोक ?

कांग्रेस कार्यकर्ताओं की लंबे समय की मांग और आने वाले लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखते हुए आज आखिरकार सोनिया गांधी की बेटी और कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की बहन प्रियंका गांधी की राजनीति में आधिकारिक तौर पर एंट्री हो गई

Updated on: 23 Jan 2019, 06:57 PM

नई दिल्ली:

कांग्रेस कार्यकर्ताओं की लंबे समय की मांग और आने वाले लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखते हुए आज आखिरकार सोनिया गांधी की बेटी और कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की बहन प्रियंका गांधी की राजनीति में आधिकारिक तौर पर एंट्री हो गई. कांग्रेस की तरफ से उन्हें पार्टी महासचिव बनाया गया है और पूर्वी यूपी की जिम्मेदारी सौंपी गई है. लेकिन यहां यह सवाल जरूर उठ रहा है कि क्या यह कांग्रेस का मास्टरस्ट्रोक है या फिर कांग्रेस की जरूरत या फिर योजना के तहत लिया गया एक फैसला ? ऐसा हम इसलिए कह रहे हैं क्योंकि आप महसूस करेंगे कि कांग्रेस पार्टी ने तब तक प्रियंका गांधी को पार्टी राजनीति में सक्रिय भूमिका नहीं दी जब तक कि राहुल गांधी कांग्रेस समेत भारतीय राजनीति में बतौर कांग्रेस के मुखिया और मंझे हुए राजनेता के तौर पर स्थापित नहीं हो गए.

2004 में राहुल की राजनीति में एंट्री, अमेठी-रायबरेली तक प्रियंका का प्रचार

राहुल गांधी अपनी बहन प्रियंका गांधी से महज दो साल बड़े हैं और गांधी परिवार के राजनीतिक वारिस के तौर पर उनकी राजनीति में एंट्री साल 2004 में हुई. राहुल पहली बार अमेठी से सांसद चुनकर संसद भवन पहुंचे. जबकि प्रियंका गांधी की राजनीति में एंट्री राहुल से ठीक 15 साल बाद हुई है. 2004-2009 तक आमतौर पर ऐसा माना जाता था कि राहुल गांधी राजनीति में अनाड़ी हैं और उनकी इसमें कोई खास दिलचस्पी भी नहीं है. ऐसे भी रिपोर्ट सामने आई थी कि शुरुआती दिनों में राहुल की दिलचस्पी राजनीति से ज्यादा बिजनेस में थी वो इसे अपने लिए ज्यादा मुफीद मानते थे. वहीं दूसरी तरफ चुनावों में खासकर लोकसभा चुनाव में प्रियंका गांधी की भूमिका सिर्फ अमेठी और रायबरेली तक सीमित थी जहां वो अपनी मां और भाई के लिए वोटो मांगने जाया करती थीं. वहां प्रियंका गांधी की महिलाओं में लोकप्रियता और वाकपटुता ने कई लोगों को उनका समर्थक बना दिया. प्रियंका गांधी की रणनीति, यादाश्त और कार्यकर्ताओं को साथ लेकर चलने की खूबी के कई उदाहरण हैं और यहां तक कहा जाता हैं कि उन्हें ज्यादातर कार्यकर्ताओं का नाम तक याद रहता है. यूपी के इस कांग्रेसी प्रभाव वाले इलाके में कुछ लोगों को प्रियंका गांधी में पूर्व पीएम और उनकी दादी इंदिरा गांधी की भी छवि दिखाई देती थी लेकिन फिर भी कांग्रेस ने सीधे उन्हें कभी आगे नहीं किया.

उपाध्यक्ष बनते ही कई राज्यों में मिली हार

राहुल गांधी को साल 2013 में कांग्रेस पार्टी का उपाध्यक्ष बनाया गया था. इस दौरान देश में कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए की सरकार थी और कई राज्यों में कांग्रेस सत्ता में थी. लेकिन राहुल गांधी के उपाध्यक्ष बनते ही खराब रणनीति की वजह से कांग्रेस को राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, दिल्ली, त्रिपुरा, नागालैंड जैसे राज्यों में बुरी तरह हार का सामना करना पड़ा. इसके बाद 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ताश के पत्तों की तरह ढह गई और ऐतिहासिक हार का सामना करते हुए 44 सीटों पर सिमट गई. ऐसा माना गया कि कांग्रेस में मोदी के मुकाबले कद्दावर नेतृत्व की कमी है. कांग्रेस के एक धड़े में प्रियंका गांधी को पार्टी की कमान देने और उन्हें सक्रिय राजनीति में लाने की भी मांग उठी लेकिन उस वक्त पार्टी अध्यक्ष रहीं सोनिया गांधी ने राहुल के विरोध में उठे इन स्वरों को दबा दिया.

यूपी वालों को राहुल गांधी और अखिलेश का साथ नहीं आया पसंद

2014 लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को सबसे बड़ी हार और बीजेपी को ऐतिहासिक जीत उत्तर प्रदेश में ही मिली थी. इसलिए लोकसभा चुनाव के ठीक 3 साल बाद जब साल 2017 में राजनीति तौर पर सबसे अहम प्रदेश उत्तर प्रदेश का विधानसभा चुनाव आया तो बीजेपी को पटखनी देने के लिए राज्य में मृत पड़ी कांग्रेस ने सत्ताधारी समाजवादी पार्टी से गठबंधन करने का फैसला किया और नारा दिया यूपी को यह साथ पसंद है. समजावादी पार्टी से गठबंधन का फैसला कांग्रेस में राहुल गांधी ने ही लिया था लेकिन जब चुनाव परिणाम आए तो यह गठबंधन न सिर्फ नकारा साबित हुआ बल्कि कई लोग यह भी कहने लगे कि कांग्रेस की वजह से ही समाजवादी पार्टी को भी ज्यादा नुकसान उठाना पड़ा. यूपी के अलावा उत्तराखंड में भी कांग्रेस के हाथों से सत्ता चली गई. यूपी और उत्तराखंड में बुरी तरह हार के बाद इलाहाबाद में कई जगह कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने एक बार फिर प्रियंका गांधी को पार्टी में आगे लाने की मांग की लेकिन इसे कांग्रेस की तरफ से अनसुना कर दिया जिसका सिर्फ एक कारण था कि राहुल गांधी बुरी तरह असफल हुए थे और पार्टी नहीं चाहती थी कि लोगों में यह संदेश जाए कि राहुल नेतृत्व करने के लायक नहीं है.

हार होती रही प्रमोशन मिलता रहा

यूपी में कांग्रेस की बुरी हार के बाद ऐसा लग रहा था कि कांग्रेस अब कड़े कदम उठाएगी लेकिन परिणाम के कुछ दिनों बाद ही पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी ने कांग्रेस की कुर्सी आधिकारिक तौर पर राहुल गांधी को सौंप कर उन्हें पार्टी का अध्यक्ष बना दिया जबकि वो लगातार कई चुनाव हार चुके थे. पार्टी अध्यक्ष बनने के बाद राहुल गांधी की सबसे बड़ी परीक्षा साल 2017 में ही गुजरात में हुई. राज्य में करीब 20 सालों से ज्यादा समय से सत्ता पर काबिज बीजेपी को उखाड़ फेंकने के लिए राहुल गांधी ने बीजेपी की ही सॉफ्ट हिंदुत्व की राजनीति अपनाई और सोमनाथ मंदिर से लेकर गुजरात के करीब 10 से ज्यादा मंदिर के चक्कर लगाए. चुनाव प्रचार के दौरान राहुल गांधी ने खुद को हिंदू भी साबित करने की कोशिश की और उनकी कोर्ट के ऊपर जेनऊ पहनी एक तस्वीर ने भी खूब सुर्खियां बटोरीं. कांग्रेस अध्यक्ष की गुजरात में सीटों को बढ़ाने में तो मेहनत रंग लाई लेकिन बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह के किलेबंदी के आगे कांग्रेस ध्वस्त हो गई और एक बार फिर राहुल गांधी को हार का मुंह देखना पड़ा. अरुणाचल प्रदेश में भी बीजेपी के हाथों कांग्रेस को सत्ता गंवानी पड़ी. इतना ही नहीं बतौर अध्यक्ष राहुल गांधी की रणनीति और राजनीतिक नेतृत्व पर तब और गंभीर सवाल उठे जब उत्तर पूर्व भारत में भी बीजेपी ने अपना दबदबा बनाते हुए त्रिपुरा, मेघालय और नागालैंड में कांग्रेस से सत्ता छीन ली. गुजरात समेत करीब 6 राज्यों की हार के बाद दबी जुबान से ही सही लेकिन एक बार फिर पार्टी में प्रियंका को सक्रिय भूमिका देने की बात उठी लेकिन पहले की तरह इस बार फिर इसे दबा दिया गया.

राहुल हुए सफल तो प्रियंका की कराई गई एंट्री

अभी हाल ही में पांच राज्यों के हुए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को जबरदस्त सफलता मिली. कांग्रेस ने बीजेपी से दशकों से सत्ता पर काबिज छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में सत्ता छीन ली जबकि राजस्थान में भी बीजेपी को हार का मुंह देखना पड़ा. इन तीनों ही राज्यों में राहुल गांधी ने उम्मीदवार चुनने से लेकर मुद्दों को उठाने में और किसानों की कर्जमाफी से लेकर मंदसौर के गोलीकांड तक को जबरदस्त तरीके से उठाकर तीन बड़े हिन्दी प्रदेशों से बीजेपी को सत्ता से बेदखल कर दिया. इन तीन राज्यों में बीजेपी की फीकी पड़ी चमक और कांग्रेस की वापसी ने कई आलचकों को भी राहुल की रणनीति की सफलता को मानने को बाध्य कर दिया. राहुल भारत के राष्ट्रीय राजनीति की फलक पर तेजी से उभरे और इन तीन राज्यों में ही नहीं बल्कि पूरे देश में कांग्रेस कार्यकर्ताओं में उनकी स्वीकृति में इजाफा हुआ. जब कांग्रेस आलाकमान या यूं कहें कि सोनिया गांधी को लगा कि अब राहुल गांधी के मंझे हुए राजनेता के तौर पर कांग्रेस और देश की राजनीति में स्थापित हो गए हैं और लोग उन्हें भावी प्रधानमंत्री के उम्मीदवार के तौर पर देखने लगे हैं या योजनाबद्ध तरीके से प्रियंका की भी राजनीति में एंट्री करा दी गई.

अगर राहुल गांधी के राजनीति में स्थापित होने से पहले ही प्रियंका गांधी की कांग्रेस में सक्रिय भूमिका हो जाती तो ऐसा संभव था कि वो राहुल से कम समय में कांग्रेस में भी और देश में भी लोकप्रिय हो जातीं. ऐसे में कांग्रेस पार्टी और देश की सत्ता दोनों जगह गांधी परिवार के इस राजनीति वारिस की वजूद पर सवाल उठ सकते थे. शायद यही कारण है कि सोनिया गांधी ने राहुल गांधी के राजनीति में स्थापित होने से पहले प्रियंका गांधी की राजनीति में एंट्री रोक कर रखी.