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ऐसा रहा पश्चिम बंगाल में टीएमसी, कांग्रेस और लेफ्ट का गणित, जानें यहां अब क्या होगा

महागठबंधन की धुरी रहीं ममता बनर्जी के गृह राज्य में ही कांग्रेस के साथ कोई गठबंधन नहीं हुआ. ना तो तृणमूल कांग्रेस ने किया और ना ही 2014 के लोकसभा चुनाव की साथी रही वाम मोर्चे ने.

Updated on: 18 May 2019, 10:20 AM

highlights

  • बंगाल में टीएमसी किसी हालत में कांग्रेस को एक भी सीट देने को तैयार नहीं थी.
  • लेफ्ट फ्रंट भी सिर्फ 10 सीटें देना चाहता था, जबकि कांग्रेस 18 पर अड़ी थी.
  • ऐसे में अकेले चुनाव मैदान में उतरना बंगाल में कांग्रेस की मजबूरी थी.

नई दिल्ली.:

2019 कांग्रेस (Congress) पार्टी के लिए राजनीतिक तौर पर काफी अहम साल रहा है. 2014 में केंद्र में मोदी सरकार (Modi Government) के आने के बाद पहली बार हुआ कि कांग्रेस को एक साथ तीन राज्यों के विधानसभा चुनावों में सफलता मिली. ऐन लोकसभा चुनाव से पहले मिली यह सफलता पार्टी के लिए किसी संजीवनी से कम नहीं रही. इसका परिणाम यह रहा कि कांग्रेस उत्तर से लेकर दक्षिण तक फिर से प्रासंगिक हो गई. स्टालिन सरीखे कुछ गैर कांग्रेसी नेताओं ने तो कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी (Rahul Gandhi) को बतौर पीएम तक प्रस्तुत कर डाला. 23 दलों का कथित महागठबंधन भी अस्तित्व में आ गया. यह अलग बात रही कि इस महागठबंधन की धुरी रहीं ममता बनर्जी के गृह राज्य में ही कांग्रेस के साथ कोई गठबंधन नहीं हुआ. ना तो तृणमूल कांग्रेस ने किया और ना ही 2014 के लोकसभा चुनाव की साथी रही वाम मोर्चे ने.

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महागठबंधन सबसे पहले बंगाल में हुआ नाकाम
अब जब 17वीं लोकसभा के लिए आखिरी चरण (7th Phase Voting Of Loksabha Elections 2019) का मतदान ही बाकी है, एक बड़ा सवाल यह उठ रहा है कि बीजेपी नीत एनडीए (NDA) को केंद्रीय सत्ता से दूर रखने के लिए अस्तित्व में आया महागठबंधन आखिर देश के दो प्रमुख राज्यों में ही एकता कायम क्यों नहीं रख पाया. पश्चिम बंगाल में कांग्रेस को अकेले दम चुनाव मैदान में उतरना पड़ा, तो उत्तर प्रदेश में भी सपा-बसपा (SP-BSP) ने गठबंधन कर कांग्रेस को दरवाजा दिखा दिया. इसमें भी पश्चिम बंगाल में कांग्रेस से टीएमसी और लेफ्ट की दूरी किन कारणों से रही, इसके नफा-नुकसान भी चर्चा में हैं.

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2014 में ही पड़ गई थी वाम मोर्चे से अलगाव की नींव
हालांकि बंगाल में वाम मोर्चा की कांग्रेस से दूरी की नींव 2014 में ही पड़ गई थी. अगर आप 2014 के चुनाव परिणामों पर गौर करें तो पाएंगे कि कांग्रेस से गठबंधन का फायदा वाम मोर्चे (Left Front) को कतई नहीं हुआ था. इसके विपरीत कांग्रेस को जो 4 सीटें मिली थीं, वह लेफ्ट के 'प्रताप' से ही थीं. विश्लेषकों ने भी स्पष्ट कर दिया था कि बंगाल में लेफ्ट को कांग्रेस के 'हाथ' से नुकसान ही हुआ है. ऐसे में 2019 में लेफ्ट हालांकि अपनी कड़ी शर्तों के साथ गठबंधन के लिए तैयार था. इसमें सबसे बड़ी शर्त यही थी कि लेफ्ट कांग्रेस को अपने हिसाब से सीट देगा. इस सीट शेयरिंग फार्मूले के तहत पुरुलिया, कूचबिहार औऱ बारासात में पेंच फंस गया.

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फॉरवर्ड ब्लॉक ने ठोकी ताबूत में आखिरी कील
माकपा नीत वाम मोर्चे में एक तो पहले ही कांग्रेस के साथ गठबंधन (Mahagatbandhan) पर एक राय नहीं थी. हालांकि आरएसपी और सीपीआई को तो किसी तरह मना लिया गया, लेकिन वाम मोर्चे का एक महत्वपूर्ण घटक फॉरवर्ड ब्लॉक अड़ियल रुख अपनाए रहा. यहां तक कि सीट शेयरिंग में भी वह अपना दावा उन तीन सीटों पर छोड़ने को तैयार नहीं था, जहां कांग्रेस लड़ने के लिए अड़ी थी. यानी कूचबिहार, पुरुलिया और बारासात. इसके अलावा रायगंज और मुर्शिदाबाद भी फंसी हुई थीं. सबसे पहला रोड़ा तो कुल सीटें थीं. कांग्रेस बंगाल (West Bengal) में 18 सीटें चाहती थीं, लेकिन वाम मोर्चा सिर्फ 12 सीट ही कांग्रेस को छोड़ना चाहता था. ऐसे में अंततः कांग्रेस को अकेले दम ही उतरने का मन बनाना पड़ा.

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तृणमूल कांग्रेस तो दिखा ही रही थी ठेंगा
तृणमूल कांग्रेस से समर्थन तो होना ही नहीं था. पश्चिम बंगाल कांग्रेस अध्यक्ष सोमेन मित्रा ने सार्वजिनक तौर पर कहा था कि मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सत्ता में वापसी का सीधा लाभ बंगाल में भी मिलेगा. वास्तव में यह एक लाचारगी भरा बयान था, जिसे राज्य में कांग्रेस की ओर से चेहरा बचाने की कवायद के तौर पर देखा गया. सीबीआई और अपने चहेते आईपीएस राजीव कुमार के बीच टकराव पर गैर बीजेपी नेताओं का कोलकाता में जमावड़ा लगाने वाली टीएमसी अध्यक्ष ममता बनर्जी (Mamta Banerjee) राज्य में कांग्रेस से गठबंधन की कतई इच्छुक नहीं थीं.

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दीदी ने पहले ही तोड़-फोड़ दी कांग्रेस
इसकी दो प्रमुख वजह थीं. एक तो खुद ममता बनर्जी ने तृणमूल कांग्रेस (Trinamool Congress) की नींव कांग्रेस से अलग होकर इसी बिनाह पर रखी थी कि कांग्रेस राज्य के हितों को लेकर गंभीर नहीं है. दूसरे कांग्रेस के पास 2014 में जो भी जिताऊ चेहरे थे, वह लगभग सभी टीएमसी (TMC) का दामन थाम चुके थे. यहां तक कि मालदा उत्तर (Malda North) से जीत कर आईं मौसम बेनजीर नूर भी टीएमसी के साथ जा खड़ी हुईं. इस तरह 2014 में चार सांसद जीतने वाली कांग्रेस के पास महज 3 सांसद ही बचे थे. ऐसे में टीएमसी कांग्रेस को एक भी सीट देने को तैयार नहीं थी. नतीजतन कांग्रेस के पास इस मोर्चे पर भी निराश होकर अकेले ही लोकसभा चुनाव में उतरने का विकल्प बचा था.

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कांग्रेस ने अधीर को हटा चला था नाकाम दांव
ऐसा नहीं है कि कांग्रेस ने तृणमूल कांग्रेस को लुभाने में कोई कसर बाकी रखी थी. ममता बनर्जी को खुश करने के लिए कांग्रेस आलाकमान ने ममता विरोधी चेहरे और अपने बंगाल कांग्रेस के अध्यक्ष अधीर चौधरी (Adhir Chaudhry) तक को बाहर का रास्ता दिखा दिया था. हालांकि यह कदम भी दीदी को खुश करने के लिए पर्याप्त साबित नहीं हुआ. ऐसे में कांग्रेस के पास वाम मोर्चे और टीएमसी से अलग ही रास्ता बनाने का विकल्प बचा था.

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दो दशक तक राज करने वाली कांग्रेस आज 3 सीटों पर सिमटी
कह सकते हैं कि आजादी के बाद दो दशक से अधिक समय तक बंगाल पर शासन करने वाली कांग्रेस का प्रभाव समय के साथ कम होता गया और पार्टी अब केवल कुछ इलाकों तक ही सीमित रह गयी है. गुटबाजी (Factionalism) से पीड़ित प्रदेश कांग्रेस के लिए एक विश्वसनीय और प्रभावी नेतृत्व की कमी तथा संगठनात्मक अस्थिरता भी एक समस्या है. 2014 के लोकसभा चुनावों में पश्चिम बंगाल में कांग्रेस नौ प्रतिशत से कुछ अधिक वोट लेकर प्रदेश में चौथे स्थान पर रही थी, जिससे पार्टी की हालत का अंदाजा लगाया जा सकता है. टीएमसी 39.8 फीसदी मतों के साथ 34 सीटें जीतने में सफल रही थी. वाम मोर्चे का भी वोट शेयर गिरा था. सीपीएम 23 फीसदी मतों के साथ 2 सीटें हासिल कर पाया था, तो कांग्रेस महज 9.7 फीसदी मतों के साथ 4 सीटें जीत सकी थीं. 2009 की तुलना में कांग्रेस के मत प्रतिशत में 4 फीसदी के आसपास गिरावट आई थी.

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2019 बंगाल में कांग्रेस के लिए अस्तित्व का प्रश्न
ऐसे में अब देखने वाली बात यह होगी कि 2019 लोकसभा चुनाव (General Elections 2019) में कांग्रेस की बंगाल में उपस्थिति कहां और कैसी बचती है? दिग्गज राजनीतिक पंडितों का मानना है कि लेफ्ट और टीएमसी से नाराज मतदाता बजाय कांग्रेस के बीजेपी (BJP) की ओर रुख कर चुका है. कयास तो यह भी लगाए जा रहे हैं कि बंगाल में बीजेपी दूसरे नंबर का पार्टी बनकर उभर रही है. जाहिर है इसका सीधा असर कांग्रेस के सिमटते जनाधार पर ही पड़ेगा, जो और सिकुड़ जाएगा.