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लोकसभा चुनाव 2019: जानें बिहार में इस बार क्या बन रहे है चुनावी समीकरण, महागठबंधन से होगा NDA का घमासान

साल 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने अपनी सहयोगी पार्टी रामविलास पासवान के नेतृत्व वाली एलजेपी और उपेंद्र कुशवाहा की अगुवाई वाली आरएलएसपी के साथ मिलकर बिहार में कुल 31 सीटें जीती थी.

Updated on: 03 Mar 2019, 06:59 AM

नई दिल्ली:

साल 2019 भारतीय राजनीतिक जगत के लिए एक महत्वपूर्ण साल है, खासतौर से विपक्षी पार्टियों के लिए. 2019 के लोकसभा चुनाव (Lok sabha polls 2019) की तारीखों का ऐलान होने में भला अभी कुछ समय बाकी है लेकिन सभी राजनीतिक दलों ने चुनावी मैदान में उतरने के लिए पूरी तरह से कमर कस ली है. ये चुनाव एक तरफ विपक्ष के लिए बड़ा मौका साबित हो सकता है तो वहीं केंद्र में शासित बीजेपी की किस्मत का भी फैसला करेगा कि वो एक बार फिर बिहार में सत्ता सीट पर काबिज होती है या नहीं.

संभावना है कि भारतीय चुनाव आयोग मार्च के पहले हफ्ते में चुनाव कार्यक्रम की घोषणा करेगा. इसके साथ ही सत्तासीन पार्टी से लेकर विपक्षी पार्टियों ने चुनावी बिगुल फूंकते हुए प्रचार-प्रसार शुरू कर दिया है. 2019 के लोकसभा चुनाव में जनता किस पार्टी की किस्मत चमकाएगी ये तो बाद की बात है लेकिन उससे पहले हम एक छोटा सा चुनावी विश्लेषण आपके सामने पेश करेंगे और देखेंगे इस बार चुनावी हवा का रुख किस ओर जा सकता है. आज बात करते हैं चौथी सबसे अधिक लोकसभा सीट वाले राज्य बिहार की. जहां फिलहाल नीतीश कुमार सत्ता शीर्ष पर काबिज हैं.

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बिहार की चुनावी पृष्ठभूमि

राजनीति की बात हो तो अक्सर बिहार का नाम जुबां पर आ ही जाता है. यहां देश की दो सबसे बड़ी पार्टियां, बीजेपी और कांग्रेस, आज के समय में अपनी मजबूत पैठ बनाने की जुगत में लगी हैं. बिहार की राजनीति में इस बदलाव का श्रेय जननायक कर्पूरी ठाकुर को जाता है जिन्होंने यहां एक नए समाजवाद की शुरुआत की. पिछड़े-गरीब और वंचित समाज के हितैषी रहे कर्पूरी ठाकुर ने मुख्यमंत्री की कुर्सी पर रहते हुए वंचित तबके के हित में तमाम ऐसे कार्य किए थे कि उन्हें जनता लोकनायक नेता के तौर पर सम्मानित करने लगी. कर्पूरी बिहार में एक सामाजिक आंदोलन के प्रतीक रहे हैं और इसके चलते राज्य में अपना वोट बैंक बढ़ाने के लिए आज तक हर राजनीतिक पार्टी उन पर अपना दावा करती नजर आ रही है. बिहार में सभी राजनीतिक दल आज भी उनका नाम प्रतीक के तौर पर उनके नाम का आज भी इस्तेमाल करते है.

कर्पूरी ठाकुर बिहार के पहले गैर-कांग्रेसी मुख्यमंत्री थे और उन्होंने इस पद पर रहते हुए तमाम ऐसे फैसले किए जिसने बिहार में बदलाव की एक नई लहर ला दी. सत्ता में रहते हुए उन्होंने आठवीं तक मुफ्त शिक्षा, उर्दू को दूसरी राजकीय भाषा से लेकर एससी-एसटी के अलावा पिछड़े वर्ग (obc)को आरक्षण देने जैसे कई अहम फैसले किए थे.
राष्ट्रीय जनता दल (RJD) के नेता लालू प्रसाद यादव कर्पूरी ठाकुर को अपना राजनीतिक गुरु मानते हैं और कहा जाता है कि जनता से संवाद रखना और सत्ता में रहते हुए जमीनी जुड़ाव रखने का गुण लालू ने उनसे ही सीखा था.

बिहार के दो बड़े चुनावी चेहरे लालू और नीतीश-

कर्पूरी ठाकुर के बाद बिहार में लालू प्रसाद की राजनीतिक पैठ ऐसी बनी कि वो हर जगह से सुर्खियां बटोरने लगे. बिहार में वो एक मसीहा के तौर पर पहचाने जाते हैं. कहा जाता है कि यहां वंचित तबकों को ऊपर उठाने और बराबरी तक लाने का श्रेय लालू को ही जाता है. अपने हंसमुख मिजाज और मजाकिया अंदाज से विरोधियों को जवाब देने की वजह से वो हमेशा सुर्खियों में रहे.

एक समय में बिहार में लालू की पैठ को हिलाना किसी भी विरोधी पार्टी के लिए बहुत मुश्किल काम था. लालू यादव की पार्टी राज्य में यादवों और गरीब तबकों के साथ ही कांग्रेस के मुस्लिम वोट बैंक में भी सेंध लगा चुकी थी. साल 1989 के भागलपुर दंगे के बाद कांग्रेस के वोट बैंक (मुस्लिम) का बड़ा हिस्सा लालू के खेमे में आ चुका था. खबरों की माने तो भागलपुर दंगे में पीड़ित मुस्लिम परिवारों को लालू का भरपूर साथ और समर्थन मिला था. जिसके बाद बिहार की राजनीति में मुस्लिम और यादव मतदाताओं की बीच लालू प्रसाद खासा लोकप्रिय और ताकतवर नेता के तौर पर स्थापित हुए. 

हालांकि बाद में उन्हें बिहार की बिगड़ती हुई कानून व्यवस्था की वजह से 2005 के राज्य विधानसभा चुनाव में करारी हार का सामना करना पड़ा था. यहां तक 2010 के विधानसभा चुनाव में भी उनकी पार्टी 243 में से सिर्फ 22 सीटें हासिल कर पाई थी. 

आम जनता से मिली इतनी प्रसिध्दि के बाद भी लालू का सियासी सफर उस समय थम सा गया जब उन्हें चारा घोटाला का दोषी करार देते हुए सजा सुनाई गई. सजायफ्ता लालू का चारा घोटाले में नाम आने के बाद उनकी लोकसभा की सदस्यता समाप्त कर दी गई और जनप्रतिनिधित्व कानून के तहत अगले 11 साल तक चुनाव लड़ने पर रोक लग गयी.

हालांकि लालू प्रसाद यादव के बेटे तेजस्वी यादव बिहार में महागठबंधन के साथ भारतीय जनता पार्टी (BJP) और जनता दल (यूनाइटेड) (JDU) को टक्कर देने के लिए लोकसभा के चुनावी मैदान में उतरेंगे.

बात करें 'सुशासन बाबू' नीतीश कुमार की, वो बिहार में विकास के लिए जाने जाते हैं. जिस समय पूरी दुनिया में बिहार की छवि जंगलराज और गरीबी की बनी थी तब नीतीश कुमार ही थे जो राज्य की सत्ता में आने के बाद कई परिवर्तन लेकर आए. उन्होंने सबसे पहले बिहार की कानून व्यवस्था को मजबूत बनाया और उसके बाद विकास का नारा देते हुए उन्होंने यहां की जनता के लिए तमाम अहम फैसले लिए. बिहार के बख्तियारपुर में जन्मे नीतीश यहां के सबसे कद्दावर नेता के रूप में जाने जाते है.

नीतीश कुमार साल 2015 के विधानसभा चुनाव में छठी बार बिहार के सत्ता पर काबिज हुए हैं. अपने कार्यकाल के पूरा होने के पहले ही 2014 के लोकसभा चुनाव में हुई करारी हार का जिम्मा लेते हुए उन्होंने इस्तीफा दे दिया था. जिसके बाद जीतन राम मांझी को मुख्‍यमंत्री पद का कार्यभार दिया था. 

उसके बाद 22 फरवरी 2015 को उन्होंने एक बार फिर गठबंधन के साथ मिलकर चुनाव लड़ा और नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली पार्टी एनडीए (NDA) को शिकस्त देकर सरकार बनाई. लेकिन यह गठबंधन भी ज्यादा दिन नहीं चला और नीतीश एक बार फिर बीजेपी के साथ हैं. नीतीश कुमार पर चुनावी फायदे के लिए अपने सहयोगी पार्टी एनडीए से कई बार अलग होने के आरोप लग चुके हैं.

बिहार में 2014 के लोकसभा चुनाव में किसका चुनावी पलड़ा था भारी?

आगामी लोकसभा चुनाव में बिहार की राजनीति में महागठबंधन की जीत होगी या एनडीए के साथ मिलकर चुनाव लड़ रही जेडीयू (JDU) बाजी मारेगी, इसका तो हम अभी सिर्फ कयास ही लगा सकते है लेकिन इससे पहले हम 2014 के लोकसभा चुनाव के परिणाम पर नजर डालेंगे कि आखिर किसके पाले में कितनी सीटें आई थी.

साल 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने अपनी सहयोगी पार्टी, रामविलास पासवान के नेतृत्व वाली लोक जनशक्ति पार्टी (LJP) और उपेंद्र कुशवाहा की अगुवाई वाली राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (RLSP) के साथ मिलकर बिहार में कुल 31 सीटें जीती थी. एनडीए की 31 सीटों में से बीजेपी को 22, एलजेपी (LJP) को 6 और आरएलएसपी (RLSP) को 3 सीटें मिली थीं.

आरजेडी-कांग्रेस और एनसीपी की गठबंधन वाली पार्टी केवल 7 सीटों तक सिमट कर रह गई. जबकि नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली जेडीयू के खाते में मात्र 2 सीटें ही आई. बीजेपी (bjp) 29.8 फीसदी वोट शेयर के साथ 1,05,43,025 वोट मिले थे. वहीं उसके सहयोगी पार्टी एलजीपी को 6.5% वोट शेयर के साथ 22,95,929  और आरजेएसपी को 3 फीसदी वोट शेयर के साथ 10,72,804 वोट मिले थे.

बात करें लालू प्रसाद यादव की पार्टी आरजेडी की तो उसने 20.4 फीसदी वोट शेयर के साथ 72,24,893 वोट हासिल किए थे. साथ ही आरजेडी की सहयोगी पार्टी कांग्रेस और एनसीपी ने 30,21,065 (8.5%) और 4,31,292 (1.2%) वोट प्राप्त किए. बिहार में 2014 का चुनाव 10 अप्रैल, 17, 24, 30 और 7 और 12 मई को छह चरणों में आयोजित किया गया था.

2019 लोकसभा चुनाव की क्या बन रही है स्थिति

एनडीए की ओर से भारतीय जनता पार्टी (BJP ) और जनता दल यूनाइटेड (JDU) 17-17 सीटों पर लड़ रहे हैं और 6 सीटों पर एलजेपी अपने दावेदार उतारेगी. बता दें कि इस बार के लोकसभा चुनाव में आरएलएसपी (RLSP) एनडीए (NDA) से अलग हो चुकी है. कांग्रेस और आरजेडी (RJD) एक साथ हैं और यहां बीजेपी-जेडीयू गठबंधन का मुकाबला महागठबंधन से है. लोकसभा चुनाव में सीटों के बंटवारे को लेकर महागठबंधन में भी पेंच फंस सकता है.

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सूत्रों के मुताबिक एनडीए से अलग हुई उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी आरएलसपी (RLSP) ने 4 सीटों पर अपनी दावेदारी ठोक दी है. बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी और शरद यादव भी कम से कम दो-तीन सीट की मांग रहे हैं. पिछले हफ्ते ही महाठबंधन में शामिल विकासशील इंसान पार्टी (VIP) के मुकेश साहनी भी दो सीट मांग चुके हैं. इसके अलावा लेफ्ट पार्टियां भी अपने पारंपरिक इलाकों में सीट मांग रही हैं. सूत्रों का दावा है कि कुशवाहा, मांझी और शरद यादव काराकाट, गया और मधेपुरा सीटों से चुनाव लड़ना चाहते हैं.