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हरियाणा- महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव: ऐसा चुनाव जो ना कभी देखा न कभी सुना, नेताओं की भीड़ में वोटर गायब

हरियाणा और महाराष्ट्र में 21 अक्टूबर को मतदान है, लेकिन चुनावों से जनता पूरी तरह से गायब है. हो सकता है कि 21 तारीख को मतप्रतिशत ठीक-ठाक ही आ जाये और सत्तारुढ पार्टी ताल ठोकें और कहे, देखिया जनता ने कैसे हमपर एक बार विश्वास जताया है.

Updated on: 20 Oct 2019, 07:30 AM

नई दिल्ली:

लोकतंत्र में चुनाव के जरिये सरकार चुनना, जनता का वो अधिकार हैं, जिसका इंतजार जनता हर पांच साल करती है. काम और प्रशासन पसंद हो, तो पार्टी की सत्ता बरकरार रखती है, नहीं तो विपक्ष में मौजूद सबसे बेहतर विकल्प पर मुहर लगाकर, एक नई सरकार को सुनहरा मौका देती है, ताकि नई सरकार-पिछली सरकार से बेहतर प्रदर्शन कर जनता का मन मौह ले. आर्दश स्थिति तो यही है. हांलाकि, भारत में सरकार बनने और उसके गिर जाने की कई वजहें रही हैं, लेकिन बहुताये ये देखने को नहीं मिलता कि सरकार चुनने और उसे बनाने को लेकर जनता में कोई दुविधा दिखs. बीते 25 सालों में ये शायद पहला मौका होगा कि दो प्रमुख राज्यों में चुनाव है, लेकिन जनता या तो मौन है, या फिर चुनाव से एकदम विमुख.

हरियाणा और महाराष्ट्र में 21 अक्टूबर को मतदान है, लेकिन चुनावों से जनता पूरी तरह से गायब है. हो सकता है कि 21 तारीख को मतप्रतिशत ठीक-ठाक ही आ जाये और सत्तारुढ पार्टी ताल ठोकें और कहे, देखिया जनता ने कैसे हमपर एक बार विश्वास जताया है. लेकिन, गालीब के शब्दों में– “हमको मालूम है जन्नत की हकीकत, लेकिन, दिल को खुश रखने को गालिब ये ख्याल अच्छा है'.

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जन्नत की हकीकत – ये जुमला अपने आप में बहुत कुछ कहने के लिए काफी है.

मसलन, देश में चौतरफा आर्थिक मंदी का प्रहार है, नौकरियों के जाने का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा. तकरीबन एक लाख लोग जो सरकार की तीन कंपनियों में काम करता हैं, एमटीएनएल, बीएसएनएल और एयर इंडिया– वे उस टिंटहिरी की तरह है आस लगाये बैंठे हैं कि विनिवेश की प्रक्रिया शुरू होने के बाद उनकी नौकरियों का क्या होगा. कई हजारों तो ऐसे हैं, जिन्हें, पिछले दो महिनों से तनख्वा ही नहीं मिली है. पूरे ऑटो सेक्टर में महीने में सिर्फ 20 दिन रोजगार मिल पा रहा है, लेकिन राज्य सरकारों के काम पर जूं तक नहीं रेंग रही. अचम्भित करने वाली बात ये है कि ऑटो सेक्टर की मार झेल रहे क्रमचारी हरियाणा और महाराष्ट्र में सबसे ज्यादा है, लेकिन इस मुद्दे पर कोई बात ही नहीं कर रहा. और तो और इन दोनो राज्यों में किसानी सबसे बढा व्यवसाय है, किसान संगठन भी सबसे ज्यादा मजबूत हैं, लेकिन हर साल कम से कम चार हजार किसानों की आत्महत्या की घटनायें भी चुनावों में कोई मुद्दा नहीं है.

बीते दस सालो में किसानों की हालत इतनी खराब कभी नहीं हुई जितनी आज है, लेकिन किसानों को तो मानो सांप सुंघ गया है. ना कोई आंदोलन, ना कोई किसानों और बेराजगारों के लिए बोलने वाला नेता. हाय से भारत, क्या हाल हो गया है तुम्हारा.

हरियाणा में जाट आराक्षण आंदोलन और महाराष्ट्र में दलित आंदोलन ने 2016 से 2018 के बीच खुब सुर्खियां बटोरी, टीवी पर भी लगा कि कम से कम समाचार दिख रहा है, जो देश की हकीकत बयां कर रहा है. लेकिन अब इन दोनों राज्यों में इन मुद्दों पर शून्य बाई सपाटा है. ना नेता बोल रहे हैं, और ना ही आंदोलनकारी. सबने मुंह सी रखा है और सरकारें अपने काम पर ऐसे इतरा रही हैं, मानो उनके शासित राज्यों में कभी कोई आंदोलन हुआ ही नहीं.

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हरियाणा और महाराष्ट्र में जाट और मराठा राजनीति को बोलबाला हुआ करता था. 2014 में इन दोनों राज्यों की कमान गैर जाट और जैर मराठी नेताओं के हाथों में बीजेपी की सेंट्रल कमान ने सौंपी. लगा कि दोनों राज्यों में बगावत तो हो कर रहेगी, लेकिन दोनों राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने ना सिर्फ अपना कार्यकाल पुरा किया बल्कि दुसरे कार्यकाल के लिए भी वे ही बीजेपी के चेहरे हैं. यानी मराठी अस्मिता और जाट स्वाभिमान के दम पर राजनीति करने वालों का तो बीजेपी ने सुपड़ा साफ कर दिया और कोई भी जातिये नेता चूं तक ना कर पाया. इसे आप कमल का कमाल नहीं कहेंगे तो क्या कहेंगे.

बीजेपी तो खैर अपनी राह पर अडिग चल रही है, लेकिन जरा कॉग्रेस, एनसीपी, आईएनएलडी और बाकि क्षेत्रिये दलों की तरफ तो देखिये, ऐसा बिखराव और चिन्तनहीनता, क्या बीते 40 सालों में कभी दिखी है किसी को. नेताओं की तो बुद्धी पर मानो पत्थर पड़ गया है.  ना तो तार्किक बयान, ना लोगों से संवाद, ना लोगों के बीच अपनी पैठ और ना ही खुद का राजनीतिक भविष्य कोई देख रहा है. सब के सब पहले से ही हार मान कर बैठ चुके है. तभी तो जो आंकलन दिख रहा है, उससे ये कहने गलत नहीं होगा कि हरियाणा में बीजेपी दो तिहाई से कही ऊपर और महाराष्ट्र में बीजेपी-शिवसेना गढजोड भी दो तिहाई से कही ऊपर सीटें पायेगी. यानि चुनाव के पहले ही बीजेपी विजयेता है. तो फिर चुनाव कराने की जरूरत ही क्यों है. क्यों केंध्र सरकार इन चुनावों पर करीब दो या तीन सौ करोड़ रुपये खर्च कर जनता के पैसों का अपव्यय करे. उसे पैसे को किसी जनकाल्याकारी काम में क्यों ना लगाया जाये. इन सभी वजहों से मैंने ये कहा कि ऐसा चुनाव अपने 26 साल के करियर में मैंने कभी नहीं देखा.

कई टीकाकार, बीजेपी के प्रचार में तरह तरह के खोट निकाल रहे हैं, कि बीजेपी के प्रचार में राज्य स्तर के मुद्दे गायब हैं और चर्चा धारा 370, कश्मीर और पाकिस्तान की हो रही है. जनाब, बीजेपी कुछ ना भी बोले, धोषणापत्र ना भी जारी करे, प्रचार ना भी करे, तब भी जीतेगी, तो फिर वे राज्य के मतदाताओं को नहीं देश की जनता को संभोधित कर रही है. ऐसे में हरियाणा और महाराष्ट्र के स्थानिये मुद्दों से वो देश को कैसे संबोधित कर सकती है. लिहाजा, इस तरह के आंकलन से मेरा तो काई एतेफाक ही नहीं है. हां इतना अफसोस जरूर है कि देश में लोकतंत्र धीमें–धीमें मर रहा है, राजनीति का आधार बदल रहा है, जनता हाशिये पर जा रही है, जनहीत पर भिडतंत्र का कब्जा मजबूत होता जा रहा है, पत्रकार मौन होते जा रहे है, विरोध के स्वर छीण होते जा रहे हैं और हम अब एक नये भारत की तरफ बढ रहे हैं. वो भारत जिसे ना तो हिन्दूस्तानियों ने कभी देख, ना कभी जाना.