कोरोना अब चला भी जाएगा तो भी ये दुनिया बहुत कुछ बदल जाएगी
किनारों पर खड़े हुए पेेड़ों पर पत्तों के रंग बदलने को सहसा आप रुक कर देखने लगते हो.
नई दिल्ली:
दुनिया लॉकडाउन से डाउन है. हर कोई मॉस्क से ढकें हुए चेहरों से नजर आ रहा है. सड़कों पर पसरा सन्नाटा बता रहा है कि सड़के बनी थी तो कितनी चौंड़ी थी. किनारों पर खड़े हुए पेेड़ों पर पत्तों के रंग बदलने को सहसा आप रूक कर देखने लगते हो. कई बार उन पेड़ों पर पत्तों का रंग आज कैसा है कल कैसा था और आने वाले कल में किस तरह का होगा ये भी सोचने लगे हो. इससे पहले तो इन पेड़ों से पत्तों के जाने औऱ आऩे का ही पता चलता था औऱ उनके बारे में सोचना शायद हमारी पीढ़ी की सोच में शुमार ही नहीं हुआ था. फिर खबरों के इस जाल में कोरोना एक शब्द जैसे हमारे लिए दुनिया को एक दम से सिर के बल खड़ा कर रहा है या फिर जैसे हम सिर के बल खड़े हो गए हो.
हजारों लाखों लोगों सड़कों पर उतरते, पैदल कदमों से महानगरों से दूसरे राज्यों से अपने गांव की ओर जाते हुए देखा. फिर रोज मुख्यमत्रियों, प्रधानमंत्री या फिर दूसरे बड़े लोगों संबोंधित करते हुए देख रहे है. एक राष्ट्र जो अरूणाचल प्रदेश में उगते हुए सूर्य से शूुरू करता है दिन को फिर कही कच्छ में रन में छिपा देता है या फिर लद्दाख की बर्फ से ढलके हुए दिन के सफेद गोले को खून से लाल थाल की तरह कन्याकुमारी के समुद्र में छिपाता हो वो शायद ही कभी एक तरह से व्यवहार करता हो. लेकिन कोरोना ने एक जगह पर ला कर खड़ा कर दिया. लाखों करोड़ रूपये के मालिक हो या कई दिन में एक रूपया देखऩे वाले हो सब हाथ में दिया लिए खड़े है या घंटी बजा रहे है.
हाथ बीस सैंकेड तक धोना है या फिर सोशल डिस्टैंसिंग की क्या परिभाषा है ये सब किसी को पूछनी नहीं है. लेकिन ये सब बहुत मामूली चीजे है. जो बदलने जा रही है वो मुल्क के आने वाले समय की अर्थव्यवस्था है. 21 दिन के लॉकडाऊन से देश को लाखों करोड़ रूपये का नुकसान होगा ये तो सभी को दिख रहा है लेकिन क्या सिर्फ इतने भर से देश उभर आएँगा. बहुत कुछ लिखने से इस वक्त लगेगा कि निराश हो रहा हूं लेकिन लाखों मजदूरों को घर जाे हुए देखा है आगे लाखों लोगों को कही फिर से घर न भागना पड़े.
प्राईवेट सेक्टर को कैसे इस अनजानी और अब तककी सबसे बड़ी मुसीबत से पार पाना होगा ये किसी को समझ में नहीं आ रहा है. लोगों के नौकरी के घंटे, काम के दिन सब कम हो रहे है तो सेलरी कैसे उतनी बनी रहेगी ये किसी को समझ में नहीं आ रहा है. बस एक संकट है जिसकी आहट धीरे धीरे सुन रही है. अगर ये सब डूबेगा तो फिर बाकि कैसे बाहर खड़े रह सकते है. हर कोई अनिश्चित सा दिख रहा है. हांलाकि सरकार के कदमों पर सवाल नहीं है लेकिन एक अनजाना सा खौंफ उन तमाम लोगों के हर्फों में खोजा जा सकता है जो आर्थिक मामलों को लेकर लिखते रहे है. सरकार ने अपनी प्राथमिकता इस देश की परंपराओं के मुताबिक ही की है और वो है कि पहले जान बचानी है फिर जहान की ओर देखेंगे.
अब तक हॉलीवुड़ की फिल्में दुनिया में इंसानों के अस्त्तिव पर खतरे को लेकर फिल्में बनाती रही है औऱ हकीकत में पहली बार दुनिया को ऐसे खतरे से जूझते हुए देख रहे है जो ताकत, पैसा सिस्ट्म या किसी भी तरीके से एक दूसरे से अलग-अलग छोरो पर खड़े हुए देशों को घुटनों के बल ला खडा़ कर रहा है बहुत सी बातें है जो दिख रही है लेकिन इस वक्त में तो सिर्फ जान बचाने की फ्रिक है.
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