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अभी बाकी है अर्थव्यवस्था के बेहतर प्रबंधन पर मोदी सरकार का इम्तिहान

अमूमन प्रधानमंत्री नीतिगत मामलों पर अभी तक एकतरफा संवाद करते रहे हैं। इस बार भी उन्होंने यही किया। चूंकि मामला अर्थव्यवस्था से जुड़ा हुआ था, इसलिए उन्होंने इस बार आंकड़ों का पूरा इस्तेमाल किया।

Updated on: 05 Oct 2017, 09:46 AM

highlights

  • देश की अर्थव्यवस्था पर उठे सवाल के बाद पहली बार पीएम मोदी खुद आए सामने
  • RBI मौजूदा वित्त वर्ष में आर्थिक वृद्धि दर के अनुमान को घटाकर 6.7 प्रतिशत कर चुकी है
  • अंतर्राष्ट्रीय रेटिंग एजेंसी ने भी घटाया जीडीपी का अनुमान, लेकिन पीएम ने दिया भरोसा- सब ठीक है

नई दिल्ली:

मौजूदा वित्त वर्ष की पहली तिमाही में जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) के 6 फीसदी के स्तर से नीचे फिसलने के बाद अर्थव्यवस्था की खराब हालत को लेकर जारी 'आशंकाओं' और 'आलोचनाओं' को सिरे से खारिज करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यह साफ किया कि जो कुछ भी कहा जा रहा है वह महज 'राजनीति से प्रेरित' है और उसका अर्थव्यवस्था के बुनियादी कारणों से दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं है।

अमूमन प्रधानमंत्री नीतिगत मामलों पर अभी तक एकतरफा संवाद करते रहे हैं और इस बार भी उन्होंने यही किया। चूंकि मामला अर्थव्यवस्था से जुड़ा हुआ था, इसलिए उन्होंने इस बार आंकड़ों का पूरा इस्तेमाल किया।

पीएम ने यूपीए-2 के आखिरी तीन साल (2011-14) के मुकाबले अपनी सरकार के पहले तीन साल (2014-2017) के जीडीपी ग्रोथ, राजकोषीय घाटा और खुदरा महंगाई दर के आंकड़ों के साथ विदेशी मुद्रा भंडार, रेलवे और रोड में निवेश के आंकड़ों के जरिये यह बताया कि अर्थव्यवस्था को लेकर जो कुछ भी कहा जा रहा है या लिखा जा रहा है, वह सिरे से गलत और बेबुनियाद है।

उन्होंने अपने पूरे भाषण में किसी का नाम तो नहीं लिया, लेकिन यह समझा जा सकता है कि उनका निशाना पार्टी के किन दो नेताओं की तरफ था।

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यह पहली बार है जब पीएम ने अर्थव्यव्यस्था को लेकर सफाई दी है। इससे पहले यह काम वित्त मंत्री अरुण जेटली और उनके कैबिनेट के सदस्य निभा रहे थे। तो क्या पीएम ने अपने भाषण में जिन आशंकाओं और आलोचनाओं को खारिज किया, क्या वाकई में उनमें दम नहीं है या वह महज राजनीति से प्रेरित बयानबाजी है।

यह समझने से पहले इन तीन बिंदुओं पर ध्यान देना जरूरी है, जिन्हें कहीं से भी राजनीति से प्रेरित बयानबाजी नहीं समझा जा सकता।

1. पीएम की सफाई से पहले भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने मौजूदा वित्त वर्ष 2017-18 के लिये आर्थिक वृद्धि दर के अनुमान को घटाकर 6.7 प्रतिशत कर दिया। आरबीआई ने इससे पहले चालू वित्त वर्ष के लिए 7.3 फीसदी वृद्धि दर का अनुमान जताया था।

2. आरबीआई से पहले अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसी फिच भी भारत के जीडीपी अनुमान को 7.4 फीसदी से घटाकर 6.9 फीसदी कर चुकी है।

3. फिच से पहले एशियाई विकास बैंक (एडीबी) भी भारत के जीडीपी अनुमान को चालू वित्त वर्ष के लिए 7.4 फीसदी से घटाकर 7 फीसदी कर चुका है।

एडीबी ने रेटिंग में कटौती के लिए निजी खपत, मैन्युफैक्चरिंग और कारोबारी निवेश में आई कमी को जिम्मेदार बताया, तो वहीं आरबीआई और फिच ने कमजोर ग्रोथ रेट के लिए जीएसटी और नोटबंदी को कारण बताया।

नोटबंदी को लेकर प्रधानमंत्री ने जो वादे किए थे, वह आरबीआई के आंकड़े जारी किए जाने के बाद संदेह के घेरे में है वहीं जीएसटी (गुड्स एंड सर्विस टैक्स) को लेकर जीडीपी में करीब 2 फीसदी के उछाल तक की बात की जा रही थी, लेकिन जीडीपी मजबूत होने की बजाए पिछले तीन साल के निचले स्तर पर जा चुकी है।

आरबीआई, फिच और एडीबी के अलावा क्रिसिल, यूबीएस और नोमुरा चालू वित्त वर्ष के लिए भारत के जीडीपी अनुमान में कटौती कर चुके हैं।

पीएम ने भी माना सब कुछ ठीक नहीं

प्रधानमंत्री अपने लंबे भाषण में भले ही पिछली सरकार के मुकाबले अपनी सरकार के बेहतर आर्थिक सुधारों का हवाला दे रहे थे लेकिन उसी वक्त वह जीडीपी को पटरी पर लाने की प्रतिबद्धता जाहिर कर रहे थे।

मोदी ने कहा, 'ये बात सही है कि पिछले तीन वर्षों में 7.5 प्रतिशत की औसत ग्रोथ हासिल करने के बाद इस वर्ष अप्रैल-जून की तिमाही में GDP ग्रोथ में कमी दर्ज की गई। लेकिन ये बात भी उतनी ही सही है कि सरकार इस ट्रेंड को रिवर्स करने के लिए पूरी तरह से प्रतिबद्ध हैं।'

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पीएम ने यूपीए (संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन) सरकार के दौरान जीडीपी में आई गिरावट का जिक्र करते हुए कहा, 'पिछली सरकार के 6 साल में 8 बार ऐसे मौके आए जब विकास दर 5.7 प्रतिशत या उससे नीचे गिरी। देश की अर्थव्यवस्था ने ऐसे क्वार्टर्स भी देखे हैं, जब विकास दर 0.2 प्रतिशत, 1.5 प्रतिशत तक गिरी।'

उन्होंने कहा, ऐसी गिरावट अर्थव्यवस्था के लिए और ज्यादा खतरनाक थी, क्योंकि इन वर्षों में भारत ऊंची मुद्रास्फीति, बड़ा चालू खाता घाटा और बड़े राजकोषीय घाटा से जूझ रहा था।'

सही आंकड़े लेकिन तुलना अप्रासंगिक

यूपीए सरकार के दौरान के इन आंकड़ों में कुछ भी गलत नहीं है लेकिन 2011-14 के मुकाबले 2014-17 के बीच की तुलना अप्रासंगिक है।

मोदी सरकार के आने के बाद से पिछले तीन सालों (2015-16-17) में कच्चे तेल की अंतरराष्ट्रीय कीमत औसतन 40 डॉलर प्रति बैरल रही लेकिन यूपीए-2 के आखिरी तीन सालों में यह औसत 90 डॉलर प्रति बैरल के आस-पास रहा।

यूपीए-2 के आखिरी तीन सालों में घाटे (5.9, 4.9 और 4.5 फीसदी) में हुई बढ़ोतरी अनायास ही नहीं थी। साथ ही यह देखा जाना चाहिए कि तत्कालीन मनमोहन सिंह सरकार 2008 की मंदी के बाद की स्थिति में काम कर रही थी, जहां सरकार की सबसे बड़ी जिम्मेदारी खपत को बढ़ाने की थी।

तत्कालीन सरकार की तरफ से वेतन आयोग की सिफारिशों को मानते हुए केंद्रीय कर्मचारियों के वेतन में बढ़ोतरी किया गया, जिसकी वजह से सरकार के खर्च में बढ़ोतरी हुई और दूसरी तरफ महंगाई और खपत में।

दूसरा कारण अंतरराष्ट्रीय था। जब कच्चे तेल की कीमत करीब 90 डॉलर प्रति बैरल से अधिक थी और उस वक्त सरकार पेट्रोल और डीजल की कीमत पर भारी सब्सिडी दे रही थी। साफ शब्दों में कहा जाए तो अन्य सब्सिडी के साथ सरकार इस सब्सिडी का बोझ भी खुद उठा रही थी।

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वहीं आज की स्थिति से तुलना की जाए तो अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत पिछले तीन सालों से 40 डॉलर से कम है, लेकिन सरकार ने महंगाई में बढ़ोतरी होने का तर्क देते हुए इस फायदे को सीधे उपभोक्ताओं को नहीं देने का फैसला लिया है।

कह सकते हैं कि महंगाई और चालू खाता घाटा को काबू में रखने के मामले में मोदी सरकार पर घरेलू और बाहरी स्थितियां मेहरबान रही है।

आज की स्थिति में अब पेट्रोलियम कंपनियों को हर दिन अंतरराष्ट्रीय बाजार की कीमतों में होने वाले उतार चढाव के मद्देनजर कीमतों में बदलाव करने का अधिकार मिल चुका है। तत्कालीन सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती खपत को बढ़ाने की थी, जिसकी वजह से महंगाई और चालू खाता खाता में बढ़ोतरी हुई।

महंगाई और घाटे की चुनौती

मोदी सरकार के सामने संयोगवश अभी ऐसी स्थितियां नहीं आई है, जहां उसके आर्थिक प्रबंधन की क्षमता की टेस्टिंग हो सके। अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों में पिछले तीन सालों से गिरावट का लाभ सरकार को मिल रहा है। चालू खाता घाटे को काबू में बनाए रखने के लिए मोदी सरकार को कोई खास कसर नहीं करनी पड़ रही है।

वहीं महंगाई के मोर्चे पर बेहतर मानसून ने सरकार की मदद की है।

खुदरा महंगाई दर में बेशक गिरावट आई है, लेकिन इसमें नोटबंदी की बड़ी भूमिका रही। नोटबंदी के बाद तरलता की स्थिति सामान्य होने में कुछ महीने लगे और इसके बाद महंगाई में लगातार बढ़ोतरी ही हुई है।

8 नवंबर 2016 को नोटबंदी का फैसला लिया गया और इसके बाद महंगाई दर में लगातार गिरावट आई और यह जून 2017 में अपने निम्नतम स्तर (1.54 फीसदी) पर जा पहुंचा। यह पिछले 18 साल का न्यूनतम स्तर था।

लेकिन इसके बाद इसमें लगातार बढ़ोतरी हुई है। जुलाई में खुदरा महंगाई दर 2.36 फीसदी रही जो अगस्त महीने में बढ़कर 3.36 फीसदी हो गई।

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उद्योग जगत की मांग के बावजूद आरबीआई ने महंगाई के आंकड़ों की वजह से ब्याज दरों में कोई कटौती नहीं की। इतना ही नहीं आरबीआई ने चालू वित्त वर्ष के लिए जहां जीडीपी के अनुमान में कटौती की, वहीं महंगाई के अनुमान को बढ़ा दिया।

राजकोषीय घाटा

मनमोहन सिंह सरकार के उलट मोदी सरकार किसानों की कर्ज माफी की किसी संभावना को खारिज कर चुकी है।

2016-17 अप्रैल से अगस्त के बीच देश का राजकोषीय घाटा पूरे साल के बजट लक्ष्य का 96.1 फीसदी होने के साथ ही सरकार ने अब कटौती की योजना पर काम शुरू कर दिया है ताकि मौजूदा वित्त वर्ष के लिए घाटे के लक्ष्य को पूरा किया जा सके।

आरबीआई कृषि कर्ज की माफी और प्रोत्साहन पैकेज दिए जाने की स्थिति में घाटे में करीब 1 फीसदी की बढ़ोतरी की संभावना जताते हुए सरकार को आगाह कर चुका है और सरकार पहले से ही इस दिशा में काम करने लिए कमर कस चुकी है।

प्रधानमंत्री अपने भाषणों में अक्सर अटल बिहारी वाजयेपी के सपनों के भारत की बात करते हैं और जब वाजपेयी सरकार के दो मंत्रियों (पूर्व वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा और विनिवेश मंत्री अरुण शौरी) ने आर्थिक नीतियों को लेकर सरकार के खिलाफ मोर्चा खोला, तो उनके लिए इसका जवाब देना जरूरी हो गया था।

वरना सही मायनों में अभी तक मौजूदा केंद्र सरकार की आर्थिक प्रबंधन की क्षमता का इम्तिहान बाकी है।

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