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अटल बिहारी वाजपेयी की 5 चर्चित कविताएं, विरोधी भी थे उनकी प्रतिभा के कायल

विरोधी भी उनकी चुटली कविताओं के कायल थे।

Updated on: 16 Aug 2018, 06:24 PM

नई दिल्‍ली:

देश के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी एक अच्‍छे राजनेता के साथ ही बहुत अच्‍छे कवि भी थे। संसद से लेकर अन्‍य मौकों पर अपनी चुटीली बातों को कहने के लिए अक्‍सर कविताओं का इस्‍तेमाल करते थे। उनका मौकों के हिसाब से कविताओं का चयन उम्‍दा रहता था, जिसको अक्‍सर विरोधी भी सराहा करते थे। यहां पेश हैं उनकी 5 चुनिंदा कविताएं।

1. गीत नया गाता हूँ

टूटे हुए तारों से फूटे बासंती स्वर ,

पत्थर की छाती में उग आया नव अंकुर,

झरे सब पीले पात,

कोयल की कूक रात,

प्राची में अरुणिमा की रेख देख पाता हूं।

गीत नया गाता हूँ।

टूटे हुए सपनों की सुने कौन सिसकी?

अंतर को चीर व्यथा पलकों पर ठिठकी।

हार नहीं मानूँगा,

रार नहीं ठानूँगा,

काल के कपाल पर लिखता मिटाता हूँ।

गीत नया गाता हूँ।

2. पंद्रह अगस्त की पुकार

पंद्रह अगस्त का दिन कहता:

आज़ादी अभी अधूरी है।

सपने सच होने बाकी है,

रावी की शपथ न पूरी है॥

 

जिनकी लाशों पर पग धर कर

आज़ादी भारत में आई,

वे अब तक हैं खानाबदोश

ग़म की काली बदली छाई॥

 

कलकत्ते के फुटपाथों पर

जो आँधी-पानी सहते हैं।

उनसे पूछो, पंद्रह अगस्त के

बारे में क्या कहते हैं॥

 

हिंदू के नाते उनका दु:ख

सुनते यदि तुम्हें लाज आती।

तो सीमा के उस पार चलो

सभ्यता जहाँ कुचली जाती॥

 

इंसान जहाँ बेचा जाता,

ईमान ख़रीदा जाता है।

इस्लाम सिसकियाँ भरता है,

डालर मन में मुस्काता है॥

 

भूखों को गोली नंगों को

हथियार पिन्हाए जाते हैं।

सूखे कंठों से जेहादी

नारे लगवाए जाते हैं॥

 

लाहौर, कराची, ढाका पर

मातम की है काली छाया।

पख्तूनों पर, गिलगित पर है

ग़मगीन गुलामी का साया॥

 

बस इसीलिए तो कहता हूँ

आज़ादी अभी अधूरी है।

कैसे उल्लास मनाऊँ मैं?

थोड़े दिन की मजबूरी है॥

 

दिन दूर नहीं खंडित भारत को

पुन: अखंड बनाएँगे।

गिलगित से गारो पर्वत तक

आज़ादी पर्व मनाएँगे॥

 

उस स्वर्ण दिवस के लिए आज से

कमर कसें बलिदान करें।

जो पाया उसमें खो न जाएँ,

जो खोया उसका ध्यान करें॥

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3. गीत नहीं गाता हूँ

बेनकाब चेहरे हैं,

दाग बड़े गहरे हैं,

टूटता तिलस्म, आज सच से भय खाता हूँ ।

गीत नही गाता हूँ ।

 

 लगी कुछ ऐसी नज़र,

बिखरा शीशे सा शहर,

अपनों के मेले में मीत नहीं पाता हूँ ।

गीत नहीं गाता हूँ ।

 

पीठ मे छुरी सा चाँद,

राहु गया रेखा फाँद,

मुक्ति के क्षणों में बार-बार बँध जाता हूँ ।

गीत नहीं गाता हूँ ।

 

4. पहचान

पेड़ के ऊपर चढ़ा आदमी

ऊंचा दिखाई देता है।

जड़ में खड़ा आदमी

नीचा दिखाई देता है।

 

आदमी न ऊंचा होता है, न नीचा होता है,

न बड़ा होता है, न छोटा होता है।

आदमी सिर्फ आदमी होता है।

 

पता नहीं, इस सीधे-सपाट सत्य को

दुनिया क्यों नहीं जानती है?

और अगर जानती है,

तो मन से क्यों नहीं मानती

 

इससे फर्क नहीं पड़ता

कि आदमी कहां खड़ा है?

 

पथ पर या रथ पर?

तीर पर या प्राचीर पर?

 

फर्क इससे पड़ता है कि जहां खड़ा है,

या जहां उसे खड़ा होना पड़ा है,

वहां उसका धरातल क्या है?

 

हिमालय की चोटी पर पहुंच,

एवरेस्ट-विजय की पताका फहरा,

कोई विजेता यदि ईर्ष्या से दग्ध

अपने साथी से विश्वासघात करे,

 

तो उसका क्या अपराध

इसलिए क्षम्य हो जाएगा कि

वह एवरेस्ट की ऊंचाई पर हुआ था?

 

नहीं, अपराध अपराध ही रहेगा,

हिमालय की सारी धवलता

उस कालिमा को नहीं ढ़क सकती।

 

कपड़ों की दुधिया सफेदी जैसे

मन की मलिनता को नहीं छिपा सकती।

 

किसी संत कवि ने कहा है कि

मनुष्य के ऊपर कोई नहीं होता,

मुझे लगता है कि मनुष्य के ऊपर

उसका मन होता है।

 

छोटे मन से कोई बड़ा नहीं होता,

टूटे मन से कोई खड़ा नहीं होता।

 

इसीलिए तो भगवान कृष्ण को

शस्त्रों से सज्ज, रथ पर चढ़े,

कुरुक्षेत्र के मैदान में खड़े,

अर्जुन को गीता सुनानी पड़ी थी।

 

मन हारकर, मैदान नहीं जीते जाते,

न मैदान जीतने से मन ही जीते जाते हैं।

 

चोटी से गिरने से

अधिक चोट लगती है।

अस्थि जुड़ जाती,

पीड़ा मन में सुलगती है।

 

इसका अर्थ यह नहीं कि

चोटी पर चढ़ने की चुनौती ही न माने,

इसका अर्थ यह भी नहीं कि

परिस्थिति पर विजय पाने की न ठानें।

 

आदमी जहां है, वही खड़ा रहे?

दूसरों की दया के भरोसे पर पड़ा रहे?

 

जड़ता का नाम जीवन नहीं है,

पलायन पुरोगमन नहीं है।

 

आदमी को चाहिए कि वह जूझे

परिस्थितियों से लड़े,

एक स्वप्न टूटे तो दूसरा गढ़े।

 

किंतु कितना भी ऊंचा उठे,

मनुष्यता के स्तर से न गिरे,

अपने धरातल को न छोड़े,

अंतर्यामी से मुंह न मोड़े।

 

एक पांव धरती पर रखकर ही

वामन भगवान ने आकाश-पाताल को जीता था।

 

धरती ही धारण करती है,

कोई इस पर भार न बने,

मिथ्या अभियान से न तने।

 

आदमी की पहचान,

उसके धन या आसन से नहीं होती,

उसके मन से होती है।

मन की फकीरी पर

कुबेर की संपदा भी रोती है।

 

5. हिरोशिमा की पीड़ा

किसी रात को

मेरी नींद चानक उचट जाती है

आँख खुल जाती है

मैं सोचने लगता हूँ कि

जिन वैज्ञानिकों ने अणु अस्त्रों का

आविष्कार किया था

वे हिरोशिमा-नागासाकी के भीषण

नरसंहार के समाचार सुनकर

रात को कैसे सोए होंगे?

क्या उन्हें एक क्षण के लिए सही

ये अनुभूति नहीं हुई कि

उनके हाथों जो कुछ हुआ

अच्छा नहीं हुआ!

 

यदि हुई, तो वक़्त उन्हें कटघरे में खड़ा नहीं करेगा

किन्तु यदि नहीं हुई तो इतिहास उन्हें

कभी माफ़ नहीं करेगा!

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अन्‍य महत्‍वपूर्ण कविताएं

पंद्रह अगस्त की पुकार

क़दम मिला कर चलना होगा

हरी हरी दूब पर

कौरव कौन, कौन पांडव

दूध में दरार पड़ गई

क्षमा याचना

मनाली मत जइयो

पुनः चमकेगा दिनकर

जीवन की ढलने लगी साँझ

मौत से ठन गई

मैं न चुप हूँ न गाता हूँ

एक बरस बीत गया

आओ फिर से दिया जलाएँ

अपने ही मन से कुछ बोलें

झुक नहीं सकते

ऊँचाई

हिरोशिमा की पीड़ा

दो अनुभूतियाँ

राह कौन सी जाऊँ मैं?

जो बरसों तक सड़े जेल में

मैं अखिल विश्व का गुरू महान

दुनिया का इतिहास पूछता

भारत जमीन का टुकड़ा नहीं

पड़ोसी से