बढ़ती आबादी भारत के लिए चिंताजनक, इसके बावजूद मजहबी सियासत कहां तक जायज?
दुनिया की 17 फीसदी से ज्यादा आबादी भारत में बसती है, जबकि दुनिया का केवल 4 फीसदी पीने लायक पानी और केवल 2.5 फीसदी जमीन ही हमारे पास है।
नई दिल्ली:
साल 1952 में परिवार नियोजन अभियान अपनाने वाला दुनिया का पहला देश भारत था। बावजूद इसके आज दुनिया का दूसरा सबसे ज्यादा आबादी वाला मुल्क भी भारत ही है। हमारे हर सूबे की आबादी दुनिया के किसी ना किसी मुल्क के बराबर है।
इतना ही नहीं, यूपी के जिले हाथरस की भी आबादी भूटान और मालदीव से ज़्यादा है। जानकार बता रहे हैं कि अगले छह साल में आबादी के मामले में हम चीन को पछाड़ देंगे। अगले 10—12 सालों में हमारी आबादी 1.5 अरब के पार हो जाएगी।
वैसे दिक्कत ज्यादा आबादी की नहीं, बल्कि उसके हिसाब से संतुलित विकास ना हो पाने की है। बेशक बीते सालों में आबादी बढ़ने की रफ्तार कम हुई है। गांव के मुकाबले शहरों और उत्तर के मुकाबले दक्षिण राज्यों में हालात अपेक्षाकृत बेहतर हुए हैं, लेकिन चुनौतियां अभी भी बरकरार हैं।
दरअसल दुनिया की 17 फीसदी से ज्यादा आबादी भारत में बसती है, जबकि दुनिया का केवल 4 फीसदी पीने लायक पानी और केवल 2.5 फीसदी जमीन ही हमारे पास है।
समझा जा सकता है कि चुनौती कितनी बड़ी है। करोड़ों लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं। भूखमरी, कुपोषण के आंकड़ें डराते हैं। बेहतर शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार से करोड़ों भारतीय महरूम हैं। हालात बेहद गंभीर हैं, लेकिन सियासत भी जारी है।
बीजेपी नेता 'कैराना' का डर दिखाकर ज्यादा बच्चे पैदा करने की नसीहत देते हैं तो कांग्रेस संसाधनों पर पहला हक अल्पसंख्यकों का बताती है। ज्यादा पैदा करने की नसीहतें देने में धर्मगुरू भी पीछे नहीं। सियासी घमासान तो कब्रिस्तान और श्मशान तक को लेकर है।
ऐसे में बढ़ती आबादी को लेकर ढेरों सवाल भी हैं। मसलन, क्या बढ़ती आबादी की बड़ी वजह अशिक्षा और पिछड़ापन है? अगर हां तो बढ़ती आबादी को धर्म और जाति के चश्मे से क्यों देखा जाता है?
विकास और जागरूकता बढ़ाने में नाकाम रहीं राज्य सरकारों की नीतिगत विफलताओं का दोष समाज के मत्थे क्यों मड़ा जाता है? बढ़ती आबादी पर सियासी घमासान क्यों है? क्या आबादी काबू करने के लिए सख्त कानून की दरकार है?
इसी मुद्दे पर देखिए मेरे साथ देश के सबसे पसंदीदा डिबेट शो में से एक 'इंडिया बोले', इस सोमवार शाम 6:00 बजे, न्यूज़ नेशन टीवी पर।
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