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PM मोदी को आखिर क्यों करना पड़ा आर्थिक सलाहकार परिषद का गठन ?

आर्थिक सलाहकार परिषद के गठन का फैसला वैसे समय में किया गया है जब नोटबंदी के बाद देश की अर्थव्यवस्था की चाल लड़खड़ाने लगी है और निवेशकों के मन में संशय की स्थिति बनने लगी है।

Updated on: 25 Sep 2017, 11:32 PM

highlights

  • आर्थिक सलाहकार परिषद के गठन का फैसला वैसे समय में किया गया है जब नोटबंदी के बाद देश की अर्थव्यवस्था की चाल लड़खड़ाने लगी है
  • आर्थिक सलाहकार परिषद ने ही 1990 के दशक में हुए सबसे बड़े आर्थिक सुधार उदारीकरण का सुझाव दिया था
  • 2008 की मंदी के समय देश को आर्थिक संकट से बचाने में सी रंगराजन की अध्यक्षता वाली परिषद की अहम भूमिका थी

नई दिल्ली:

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सोमवार को आर्थिक सलाहकार परिषद (ईएसी) का गठन किया। अर्थशास्त्री बिबेक देबरॉय को परिषद का चेयरमैन बनाया गया है।

आर्थिक सलाहकार परिषद अर्थव्यवस्था से जुड़े मामलों की समीक्षा कर सीधे उसकी रिपोर्ट प्रधानमंत्री को सौंपेगी।

परिषद में चेयरमैन समेत 5 सदस्य होंगे। देबरॉय के अलावा सुरजीत भल्ला, रथिन रॉय, आशिमा गोयल और रतन वातल को इस आयोग का सदस्य बनाया गया है।

नई दिल्ली में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के बाद प्रधानमंत्री ने इस परिषद के गठन का फैसला लिया।

आर्थिक सलाहकार परिषद के गठन का फैसला वैसे समय में किया गया है जब नोटबंदी के बाद देश की अर्थव्यवस्था की चाल लड़खड़ाने लगी है और निवेशकों के मन में संशय की स्थिति बनने लगी है।

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ऐसे में यह अनायास ही नहीं है जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आर्थिक सलाहकार परिषद को फिर से जिंदा करने का फैसला लिया है। देश की अर्थव्यवस्था में इस थिंक टैंक की भूमिका का अंदाजा दो अहम उपलब्धियों के आधार पर लगाया जा सकता है।

1. यह आर्थिक सलाहकार परिषद ही थी, जिसने 1990 के दशक में हुए सबसे बड़े आर्थिक सुधार उदारीकरण का सुझाव दिया था।

2. 2008 की मंदी के समय देश को आर्थिक संकट से बचाने में सी रंगराजन की अध्यक्षता वाली परिषद की अहम भूमिका थी, जब मनमोहन सिंह देश के प्रधानमंत्री थे।

लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था

पिछली कुछ तिमाही में देश की जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) लगातार कमजोर हुई है और चालू वित्त वर्ष की पहली तिमाही में यह कम होकर 5.7 फीसदी हो गई, जो पिछले तीन सालों का सबसे कमजोर ग्रोथ रेट है।

2016-17 की पहली तिमाही में देश की जीडीपी 7.9 फीसदी थी। मोदी सरकार के सामने इस समय सबसे बड़ी चुनौती मंदी की आशंका को दूर करना है, जिसे लेकर सरकार भी अपनी कमर कस चुकी है।

वित्त मंत्री अरुण जेटली से लेकर मोदी सरकार के अन्य मंत्री अर्थव्यवस्था की खराब हालत को स्वीकार कर चुके हैं।

जेटली जहां जरूरत पड़ने पर प्रोत्साहन पैकेज दिए जाने का संकेत दे चुके हैं वहीं सरकार के एक अन्य मंत्री नितिन गडकरी ने राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के बाद यह माना कि अर्थव्यवस्था मुश्किल में है और उसे सुधारने के लिए 'युद्ध स्तर' पर काम किया जा रहा है।

सूत्रों के मुताबिक सरकार अर्थव्यवस्था में करीब 500 अरब रुपये डालने की योजना बना चुकी है और इसके लिए चालू वित्त वर्ष में राजकोषीय घाटे के लक्ष्य को संशोधित किए जाने का भी मन बना चुकी है।

हालांकि प्रोत्साहन पैकेज की स्थिति दोधारी तलवार पर चलने जैसी होगी।

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प्रोत्साहन पैकेज दिए जाने से सरकार का घाटा बढ़ेगा और फिर रेटिंग एजेंसियां भारत की रेटिंग में कटौती कर सकती हैं वहीं ऐसा नहीं करने की स्थिति में अर्थव्यवस्था की हालत और बदतर हो जाएगी।

अनायास नहीं ईएसी का पुनर्गठन

ऐसे में आर्थिक सलाहकार परिषद को फिर से जिंदा किए जाने का फैसला अनायास ही नहीं लिया गया है। इससे पहले आर्थिक परिषद की अध्यक्षता रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर सी रंगराजन के हाथों में थी जब मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री हुआ करते थे।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गिरती अर्थव्यवस्था को संभालने के लिए एक बार फिर से पुरानी सरकार की बुद्धिमता पर भरोसा जताया है।

पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पहले भी नोटबंदी के फैसले को लेकर मोदी की आलोचना कर चुके हैं। पिछले साल 8 नवंबर 2016 को नोटबंदी की घोषणा के बाद मनमोहन सिंह ने इसे सबसे बड़ी आर्थिक लूट बताते हुए कहा था कि यह फैसला देश की जीडीपी में 2 फीसदी तक की कमी ला सकता है।

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समय के साथ सिंह का अंदेशा सच साबित हुआ। वहीं पहले ना-नुकर कर रही मोदी सरकार अब इस बात को मान चुकी है कि अर्थव्यवस्था गहरे दुष्चक्र में फंस गई है।

मौजूदा आर्थिक सलाहकार परिषद को ज्यादा व्यापक अधिकार दिए गए हैं। परिषद कई मामलों में खुद ही संज्ञान ले सकता है। इसके अलावा परिषद प्रधानमंत्री या किसी अन्य की तरफ से भेजे गए आर्थिक मामलों पर भी विचार कर सकता है।

ईएसी ने रखी थी सबसे बड़े सुधार की नींव

देश की अर्थव्यवस्था में आर्थिक सलाहकार परिषद की अहमियत को इस बात से समझा जा सकता है कि इसी परिषद ने 90 के दशक में हुए सबसे बड़े आर्थिक सुधार उदारीकरण का सुझाव दिया था।

तत्कालीन चेयरमैन एस चक्रवर्ती ने अर्थव्यवस्था की व्यवास्थागत खामियों का जिक्र करते हुए कई अहम सुधारों की सिफारिश की थी, जिसे मानते हुए उदारीकरण का रास्ता लिया गया।

राजनीति में आने से पहले पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इसी परिषद के सदस्य हुआ करते थे। इसके बाद 1991 में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंहा राव ने मनमोहन सिंह को वित्त मंत्री बनाया तो उन्होंने उदारीकरण को आगे बढ़ाने का काम किया।

2008 में जब देश की अर्थव्यवस्था मंदी की चपेट में आई तब मनमोहन सिंह देश के प्रधानमंत्री बन चुके थे और उन्होंने सुरेश तेंदुलकर को हटाकर सी रंगराजन को आर्थिक सलाहकार परिषद का चेयरमैन बनाया।

रंगराजन की नियुक्ति वैसे समय में की गई थी जब देश 2008 की वैश्विक मंदी की चपेट में आ चुका था। रंगराजन तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के करीबी अर्थशास्त्रियों में से एक थे और उस वक्त आर्थिक मामलों में मनमोहन सिंह जिन तीन अर्थशास्त्रियों पर निर्भर थे, रंगराजन उनमें सबसे भरोसेमंद थे।

अन्य दो अर्थशास्त्रियों में योजना आयोग (अब नीति आयोग) के तत्कालीन उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह आहलूवालिया और पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार कौशिक बसु शामिल थे। 

हालांकि देश में अभी मंदी जैसे हालात नहीं है लेकिन सरकार भी अब इस बात को मानकर चलने लगी है, उसे अर्थव्यवस्था को फिर से पटरी पर लाने के लिए बहुत जल्द कुछ बड़े उपाय करने होंगे। आर्थिक सलाहकार परिषद जैसे थिंक टैंक का पुनर्गठन इसी मौजूदा चुनौतीपूर्ण स्थिति पर मोदी सरकार की स्वीकारोक्ति है। 

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