logo-image

नोटबंदी पर यही कहते ग़ालिब किख़ुशी से मर न जाते, अगर एतबार होता

तू तो वो जालिम है जो दिल में रह कर भी मेरा न बन सका ग़ालिब और दिल वो काफिर, जो मुझ में रह कर भी तेरा हो गया, शायरी की कद्रदान गालिब को कुछ इसी तरह याद करते हैं।

Updated on: 27 Dec 2016, 02:23 PM

नई दिल्ली:

नोटबंदी के बाद कतारों में लगी जनता को जिस तरह के परेशानी का सामना करना पड़ रहा है उसे देखते हुए हम कह सकते हैं कि अगर मिर्जा ग़ालिब आज ज़िंदा होते तो यही कहते 'ख़ुशी से मर न जाते, अगर एतबार होता।'

असदउल्लाह बेग ख़ां उर्फ 'ग़ालिब' उर्दू शायरी के वह अज़ीम शख्सियत, जिनकी शायरी इतनी रुहानी और चुटीली थी कि आज उनके इंतकाल के इतने सालों बाद भी लोग उन्हें भूले नहीं हैं। 27 दिसंबर 1796 आगरा में उनका जन्‍मे गालिब के पूर्वज तुर्की से भारत आए थे। गालिब के दादा के दो बेटे व तीन बेटियां थी। मिर्ज़ा अब्दुल्ला बेग खान व मिर्ज़ा नसरुल्ला बेग खान था उनके बेटों का नाम। मिर्ज़ा अब्दुल्ला बेग खान गालिब के वालिद साहब थे। 


तू तो वो जालिम है जो दिल में रह कर भी मेरा न बन सका ग़ालिब, और दिल वो काफिर, जो मुझ में रह कर भी तेरा हो गया, शायरी की कद्रदान गालिब को कुछ इसी तरह याद करते हैं।

'फ़िक्र-ए-दुनिया में सर खपाता हूं, मैं कहां और ये बवाल कहां' गालिब की ज़िदगी भी उनके इस शेर की तरह मुसीबतों से भरी रही। आइए जानते हैं उनके जन्मदिन पर उनके ज़िंदगी से जुड़े तमाम पहलुओं को:

शिक्षा 

उनके शुरुआती शिक्षा के बारे मे स्पष्ट रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता लेकिन ग़ालिब के अनुसार उन्होने 11 वर्ष की अवस्था से ही उर्दू एवं फ़ारसी मे गद्य और पद्य लिखना शुरू कर दिया था। 

विवाह

13 साल की उम्र मे उनका विवाह नवाब ईलाही बख्श की बेटी उमराव बेगम से हो गया था। गालिब विवाह के बाद वह दिल्ली आ गये और आख़िरी वक्त तक दिल्ली में रहे। विवाह के बाद ‘ग़ालिब’ की आर्थिक कठिनाइयाँ बढ़ती ही गईं। 1822 ई. में ब्रिटिश सरकार एवं अलवर दरबार की स्वीकृति से नवाब अहमदबख़्श ख़ाँ ने अपनी जायदाद का बँटवारा यों किया कि उनके बाद फ़ीरोज़पुर झुर्का की गद्दी पर उनके बड़े लड़के शम्सुद्दीन अहमद ख़ाँ बैठे तथा लोहारू की जागीरें उनके दोनों छोटे बेटों अमीनुद्दीन अहमद ख़ाँ और ज़ियाउद्दीन अहमद ख़ाँ को मिले। शम्सुद्दीन अहमद ख़ाँ की माँ बहूख़ानम थीं, और अन्य दोनों की बेगमजान। स्वभावत: दोनों औरतों में प्रतिद्वन्द्विता थी और भाइयों के भी दो गिरोह बन गए। आपस में इनकी पटती नहीं थी।

बहादुर शाह जफर के दरबार में शायर थे गालिब

1850 में बहादुर शाह जफर द्वितीय के दरबार में उनको दबीर-उल-मुल्क की उपाधि दी गयी | 1854 में खुद  बहादुर शाह जफर ने उनको अपना कविता शिक्षक चुना | मुगलों के पतन के दौरान उन्होंने मुगलों के साथ काफी वक़्त बिताया ।मुगल साम्राज्य के पतन के बाद ब्रिटिश सरकार ने उन पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया और उनको कभी पुरी पेंशन भी नहीं मिल पायी।

दिल्ली में ली आख़िरी सांस

मुगलकाल के खत्म होने पर वह दिल्ली आ गए। दिल्ली में उन्हें बहुत परेशानियों का सामना करना पड़ा। गालिब के पास खाने तक के पैसे नहीं हुआ करते थे। उन्होंने लोगों के मनोरंजन के लिए शायरी सुनाने लगे। मिर्जा ने दिल्ली में 'असद' नाम से शायरी शुरू की। लोगों ने उनकी शायरी को सराहा और गालिब शायरी की दुनिया के महान शायर बन गए। गालिब को शराब पीने की लत थी जिसकी वजह से उन पर बहुत ज़्यादा क़र्ज़ हो गया जिसे वह अंतिम वक्त तक नहीं चुका पाए।

15 फरवरी 1869 को गालिब ने आखिरी सांस ली। उन्हें दिल्ली के निजामुद्दीन बस्ती में दफनाया गया। उनकी कब्रगाह को मजार-ए-गालिब के नाम से जाना जाता है। गालिब पुरानी दिल्ली के जिस मकान में रहते थे, उसे गालिब की हवेली के नाम से जाना जाता है।