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5 सालों में जनता की उम्मीदों पर कितनी खरी उतरी आम आदमी पार्टी ?

भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में जनता को सरकारों के काम-काज का लेखा जोखा करने का मौका 5 साल में एक ही बार मिलता है।

27 Nov 2017, 07:16:14 PM (IST)

नई दिल्ली:

भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में जनता को सरकारों के काम-काज का लेखा जोखा करने का मौका 5 साल में एक ही बार मिलता है। पार्टी के पांचवें स्थापना दिवस के मौके पर दिल्ली की सत्ता पर काबिज आम आदमी पार्टी ने भी अपने कार्यकर्ताओं के बीच स्वमूल्यांकन या यूं कहें कि पार्टी का पंचवर्षीय लेखा-जोखा पेश किया।

AAP की सथापना के 5 साल पूरे होने पर पार्टी ने उसी रामलीला मैदान का चुना जहां से अन्ना की अगुवाई में इंडिया अगेंस्ट करप्शन नामक संस्था ने राष्ट्रव्यापी आंदोलन की शुरुआत की थी। इस आयोजन के ठीक एक दिन बाद इनकम टैक्स डिपार्टमेंट ने आप पर चंदे में फर्जीवाड़े का आरोप लगाते हुए 30 करोड़ का जुर्माना ठोक दिया है।

यह पहली बार नहीं जब भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन के गर्भ से निकली पार्टी पर ही भ्रष्टाचार के संगीन आरोप लगे हैं। इस बार अन्य आरोपों के मुकाबले जुर्माने का वजन काफी भारी दिखाई दे रहा है।

आप के नेता इसके लिए सीधे तौर पर बीजेपी को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। ऐसे में सच्चाई का आईना शायद इस मामले में भी आनेवाले दिनों में कोर्ट को ही दिखाना होगा जिसके सामने आप सरकार के कई मामले लंबित है ।

5 साल के सफर में आप ने 3 साल सत्ता का स्वाद भी चखा है और सत्तासीन यह पार्टी जनमत की जिस अपार आकांक्षाओ के रथ पर सवार होकर आयी थी उसका दृश्य भी रामलीला मैदान में सबने देखा था।

अपना 5 वां स्थापना दिवस मनाने के लिए जब आप नेता रामलीला मैदान के मंच पर जुटे तो इस स्थापना दिवस को क्रांति दिवस का नाम दिया गया। ये और बात है कि इस मंच पर न अन्ना थे, न अन्ना का कोई प्रतीकात्मक स्वरूप, न पोस्टर-बैनर में तस्वीर और ना ही उनकी यादों का कोई गुलदस्ता।

इसके ठीक उलट पार्टी के अंदर जारी खींचतान और क्रांति मंच पर जरूर नजर आ रही थी वो भी जब खासतौर पर पार्टी नेता कुमार विश्वास पार्टी के आंतरिक लोकतंत्र पर सवालिया निशान खड़े कर रहे थे।

कार्यक्रम के दौरान केजरीवाल बिना नाम लिए कार्यकर्ताओं को यह समझा रहे थे कि व्यक्तिवाद से इतर पार्टी के लिए राष्ट्रवाद, राष्ट्रचिंतन जरूरी है।

राजनीति से कोसों दूर रहने और क्रांति की अलख जगाने वाले अन्ना के सेनापति बने केजरीवाल ने जब लोकपाल के सपने को साकार करने के लिए तन,मन, धन अर्पित किया तो देश के जनमानस में क्रांति की एक ऐसी चिंगारी पैदा हुई थी जिसने भ्रष्टाचार के समूल नाश का सपना दिखाया था।

खासतौर पर युवाओं का जोश इंडिया गेट से लेकर रामलीला मैदान तक देखते बनता था। इस क्रांति के चोले को बदलकर जब केजरीवाल ने अन्ना से अलग राजनीति की टोपी पहनी तब भी भरोसे के  भंवर में जनता ने भरपूर साथ दिया।

इसी का परिणाम था कि दिल्ली को अपनी राजनीति की प्रयोगशाला बनानेवाले केजरीवाल को दिल्ली ने 70 में से 67 सीटें देने में कोई गुरेज नहीं किया और ये सब तब हुआ जब दिल्ली के तख्तोताज से देश को संचालित करने का बागडोर जनता नरेंद्र मोदी को थमा चुकी थी।

केंद्र में हुए इस बड़े परिवर्तन में दिल्ली की जनता ने मोदी का साथ दिया था। केजरीवाल के उभार ने दिल्ली में 15 साल तक शीला दीक्षित के नेतृत्व में शासन करने वाली कांग्रेस को चुनावी मैदान से ही बाहर धकेल दिया था।

अब जबकि दिल्ली ने भी केजरीवाल सरकार के 3 साल देख लिए और पार्टी कार्यकर्ताओ ने स्थापना के 5 साल का जश्न मनाया तो यहां से पीछे मुड़कर देखने और समय के इस चक्र को गहराई से समझने की जरूरत है।

अन्ना से अलग होकर अपनी स्थापना के 5 साल में पार्टी उन तमाम स्तंभों से भी अलग हो चुकी है जिसने इसे खड़ा करने में अपना सबकुछ झोंक दिया था। शांति भूषण और प्रशांत भूषण ने जहां करोडों रुपये का निवेश इस पार्टी को खड़ा करने में किया वहीं अपनी ईमानदारी और सामाजिक और चुनावी समझ के ज्ञान को पार्टी के लिए समर्पित करने में योगेंद्र यादव और जेएनयू के प्रोफेसर आनंद कुमार ने भी कोइ कसर नही छोड़ी।

कम समय मे ही इन नेताओं को अपनी ईमानदारी, वसूल और नैतिकता का खामियाजा झेलना पड़ा। अपने मूल उद्देश्य से भटक रही पार्टी को जब इन नेताओं ने आईना दिखाने की कोशिश की तो सत्ता से लेकर पार्टी तक अपनी मजबूत पकड़ का परिचय देते हुए अरविंद केजरीवाल ने इन सबको बाहर का रास्ता दिखा दिया। इस तरह की कार्रवाई के बाद आप मतलब केजरीवाल और केजरीवाल मतलब आप बनकर रह गया।

आप सरकार के कार्यकाल का अगर मूल्यांकन किया जाए तो मोहल्ला क्लीनिक और सरकारी स्कूलों के इंफ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट में इस सरकार ने अपनी ताकत जरूर झोंकी और उसके सुखद परिणाम भी सामने आए है।

लेकिन दूसरे तमाम मोर्चों पर इस सरकार ने अपनी नौसिखिया होने का प्रमाण भी पेश किया है। केंद्र से दुश्मनी मोल लेना केजरीवाल को कम और दिल्ली वासियों को ज्यादा महंगा पड़ रहा है।

केंद्र और दिल्ली की नूराकुश्ती में अगर कुछ दिखता है तो फाइलों का ढेर और उसमें जमती धूल। इस बीच दिल्ली के उपरज्यपाल नजीब जंग तो बदल गए लेकिन उनकी जगह आए अनिल बैजल से भी केजरीवाल के रिश्तों में कुछ खास सुधार नहीं आया। उपराज्यपाल से अधिकारों की लड़ाई पर सीएम केजरीवाल बैजल के सामने खड़े हैं और मामला सुप्रीम कोर्ट में लंबित है।

अगर बात गवर्नेंस की करें तो सरकार और ब्यूरोक्रेसी की लड़ाई भी दिल्ली के विकास की राह में रोड़े की तरह दिखाई देती है। ब्यूरोक्रेट सरकार के फरमानों पर रूल ऑफ लॉ की तलवार चलाते हैं और इसकी मार जनता को झेलनी पड़ती है।

इतना ही नहीं केजरीवाल सरकार के तीन मंत्री भी अबतक भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ चुके हैं तो वहीं जल मंत्री रहे कपिल शर्मा की बगावत अब भी जोरों पर है। दूसरा मामला आफिस ऑफ प्रॉफिट भी चुनाव आयोग में लंबित है।

खैर विवाद जितने भी हों लेकिन आम आदमी पार्टी और उसकी सरकार की आगामी दशा और दिशा उसके आने वाले दो साल के काम पर ही निर्भर करेगा।